Friday, January 30, 2015



प्रविष्टि-7
आत्मकथा

     किसी व्यक्ति के जीवन की झांकी पेश करनेवाली विधा को पुराने साहित्य में चरित काव्य' कहा जाता था। यह परंपरा आधुनिक युग तक चली आई। गांधी चरित', नेहरू चरित' जैसे ग्रंथ इसके उदाहरण हैं। चरित काव्य के नायक प्राय: पूज्य पुरुष हुआ करते हैं। प्राचीन साहित्य में बुद्धचरित', महावीर चरित' हैं और अर्वाचीन साहित्य के उदाहरण ऊपर दे ही दिए गए हैं। गद्य का विकास होने और समकालीन व्यक्तियों पर तथ्यानुरूप लिखे जाने की प्रवृत्ति पनपने पर यह विधा जीवनी कही गई। जीवनी के साथ-साथ आत्मकथा विधा भी अस्तित्व में आई। आत्मकथा विधा में रचनाकार अपना जीवन वृत्तांत लिखता है। भारत में प्राचीन ज्ञात आत्मकथा हर्षचरित है। सातवीं शताब्दी के मध्य में संस्कृत गद्यकार वाणभट्ट ने तत्कालीन नरेश हर्षवर्धन का जीवन चरित लिखा। इस ग्रंथ के शुरुआती तीन अध्यायों में वाण ने अपनी जीवन कथा लिखी है। आत्मकथा लेखन की परंपरा का संस्कृत में आगे कोई विकास नहीं दिखता। आधुनिक भारतीय भाषाओं में लिखी गई पहली आत्मकथा र्द्धकथा' है। हिंदी की पूरबी बोली में पद्यबद्ध रचित यह आत्मकथा बनारसीदास जैन की है। यह ग्रंथ 1641 में रचा गया था। हिंदी नवजागरण के पुरोधा भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपना संक्षिप्त आत्म चरित्र 1876 में कविवचनसुधा' पत्रिका में एक कहानी कुछ आपबीती कुछ जगबीती' नाम से प्रकाशित कराया था। भारतेंदु के सहयोगी लेखकों में सुधाकर द्विवेदी ने रामकहानी' तथा अंबिका दत्त व्यास ने निजवृतांत' (1901) नाम से अपनी आत्मकथा लिखी। द्विवेदी युग में स्वामी दयानंद का आत्मचरित' (1917) तथा सत्यानंद अग्निहोत्री का मुझमें देव जीवन का विकास' (1910) प्रकाशि हुए। छायावादी दौर में भाई परमानंद रचित आपबीती' (1921) तथा स्वामी श्रद्धानंद कृत कल्याण मार्ग का पथिक' आत्मकथा का प्रकाशन हुआ। इसी अवधि में हरिभाऊ उपाध्याय ने महात्मा गांधी की आत्मकथा- सत्य के प्रयोग’ (1927) का अनुवाद किया। सुभाष चंद्र बोस की आत्मकथा तरुण के स्वप्न’ (1935) भी अनुदित होकर प्रकाशित हुई। छायावादोत्तर काल की मुख्य आत्मकथाओं में बाबू श्यामसुंदर दास- मेरी आत्मकहानी' (1941), राजेद्र प्रसाद आत्मकथा’ (1947), गुलाब राय – मेरी असफलताएं’ (1941), राहुल सांकृत्यायन- मेरी जीवनयात्रा' (1946), यशपाल- सिंहावलोकन' (1951-55), पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र’- अपनी खबर' (1960), हरिवंश राय बच्चन की चार भागों में - "क्या भूलूं क्या याद करूं' (1969), "नीड़ का निर्माण फिर' (1970), 'बसेरे से दूर' (1977), "दस द्वार से सोपान तक' (1985) विशेष उल्लेखनीय हैं। 
            साहित्य विधाओं में हाशिए पर स्थित आत्मकथा विधा को केंद्रीयता मिली दलित आत्मकथाओं के प्रकाशन के बाद। दलित विमर्श की सर्वाधिक सशक्त अभिव्यक्ति इसी विधा में हुई। मराठी दलित आत्मकथाओं का अनुवाद होने से इस विधा को पर्याप्त मजबूती मिली और आत्मकथाओं के पाठकों  में आशातीत वृद्धि हुई। मराठी से अनुदित प्रमुख दलित आत्मकथाओं में दया पवार- अछूत' (1980), शरण कुमार लिंबाले- अक्करमाशी' (1991), शंकर राव खरात- तराल अंतराल' (1987), बेबी कांबले- जीवन हमारा' (1995) और किशोर शांताबाई काले- "छोरा कोलहाटी का' (1999) के नाम लिए जा सकते हैं। दलित आत्मकथाओं ने कई विवादों को जन्म भी दिया। इन विवादों में एक था इसके नाम को लेकर हुआ विवाद। कुछ लेखकों ने यह सवाल उठाया कि आत्मकथा' में आत्म' आत्मा के लिए तथा कथा' काल्पनिक कहानी के लिए व्यवह्मत होता है। क्योंकि दलित विमर्श आत्मा में विश्वास नहीं रखता और उसके लेखन तथ्य पर आधारित होता है। इसलिए यह नाम अस्वीकार्य है। विकल्प में जो नाम सुझाए गए उनमें स्वकथन, आत्मकथन, स्ववृत्त, आत्मवृत्त आदि थे। आत्मकथा से जुड़़ा दूसरा विवाद उसकी प्रामाणिकता को लेकर था। यह प्रश्न उठाया गया कि चूंकि दलित आत्मकथाएं प्रामाणिक मानी जाती हैं इसलिए इसकी प्रामाणिकता को स्वयंसिद्ध स्वीकारने की बजाए उसकी जांच की जानी चाहिए। मगर प्रामाणिकता की जांच संभव है क्या? विवाद का तीसरा स्वर बाजार के दबाव से जुड़ा था। कुछ आलोचकों ने सवाल उठाया कि बाजार क्योंकि आत्मकथाओं के प्रकाशन में लाभ देखता है इसलिए वह दलित लेखकों को आत्मकथा लिखने के लिए उकसाता है। आत्मकथाकार भीतरी सृजनेच्छा या आंदोलन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण आत्मकथा नहीं लिखते वरन बाजार की मांग के अनुरूप इसके लेखन में प्रवृत्त होते हैं। 
            इन छिटपुट विवादी स्वर के वाबजूद दलित आत्मकथाओं का लेखन और प्रकाशन जारी रहा। इन्हें दलित जीवन का विश्वसनीय दस्तवेज माना गया। दलित विमर्श मानता है कि गैरदलितों का लिखा दलित साहित्य की श्रेणी में नहीं आ सकता। इस मान्यता का आधार स्वानुभूति और सहानुभूति का फर्क है। आत्मकथाएं स्वानुभूति से लिखी जाती हैं। सहानुभूतिपरक लेखन दलित साहित्य नहीं कहला सकता। दलित आत्मकथाएं व्यक्ति के जीवन का एकांतिक लेखा-जोखा न होकर दलित समुदाय की व्यथा कथा है। इनमें रचनाकार का अतीत ही नहीं, पूरे समुदाय का इतिहास मौजूद होता है। दलित आत्मकथाएं आंदोलन से उपजी हैं और इसलिए आंदोलन का ब्यौरा प्रस्तुत करती हैं। शिक्षा और सामाजिक सम्मान के लिए संघर्ष दलित आत्मकथाओं का अनिवार्य हिस्सा है। हिंदी की प्रमुख दलित आत्मकथाओं में मोहन दास नैमिशराय- अपने-अपने पिंजरे' (1995), ओमप्रकाश वाल्मीकि- जूठन' (1997), सूरजपाल चौहान- तिरस्कृत' (2002), कौशल्या बैसंती- दोहरा अभिशाप' (1999), सुशीला टाकभौरे- शिकंजे का दर्द' (2011), तुलसी राम – मुर्दहिया' (2012) आदि हैं। दलित स्त्रियों के आत्मकथाओं ने परिवार के भीतर का सच सामने लाकर एक बड़े अभाव की पूर्ति की है। गैर दलित स्त्रियों की आत्मकथाएं भी इस विधा का महत्वपूर्ण पक्ष हैं। ऐसी आत्मकथाओं में प्रभा खेतान- अन्या से अनन्या', कृष्णा अग्निहोत्री – लगता नहीं दिल मेरा' और मैत्रेयी पुष्पा- गुड़िया भीतर गुड़िया' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। 

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