प्रविष्टि-6
कलावाद
सृजन
के क्षेत्र में कलावाद उस सैद्धांतिक आग्रह को कहते हैं, जिसमें कला को साधन नहीं, साध्य
मानने पर बल रहता है। यह आग्रह प्रत्यक्षवादी सौंदर्यशास्त्र के सिद्धांत का
समर्थन करता है, जिसमें सामाजिक पक्षधरता और विचारधारात्मक
प्रतिबद्धता की यथार्थवादी अपेक्षाओं को प्रतिमान मानने से इनकार किया जाता है। इस
तरह उपयोगितावादी दृष्टिकोण का विरोध करता है जिसमें किसी कलाकृति का मूल्यांकन इस
आधार पर किया जाता है कि वह सामाजिक अपेक्षाओं के कितना अनुरूप है।
प्राचीन
भारतीय कलाचिंतन में ‘कलावाद’ जैसे किसी अभिधान की कोई स्थिति नहीं थी। भारतीय काव्यशास्त्र
में काव्य के प्रयोजनों को लेकर जो गंभीर विचार-विमर्श का चलते रहना इस बात का
प्रमाण है कि काव्य को साध्य नहीं, साधन ही
अधिक माना जाता रहा। भले ही ‘कवय: निरंकुशय:’ या ‘कविर्मतनीषी परिभू स्वंयम्' जैसी कुछ उक्तियां कवि की स्वतंत्रता और स्वायत्ता को ध्वनित करती
रही हों, लेकिन काव्य के प्रयोजनों की चर्चा (‘यशसेर्थकृते शिवेतरक्षतये' इत्यादि) से यह संकेत मिलता है कि काव्य की उपयोगिता के प्रश्न से
एकदम ही किनारा करने की प्रवृत्ति भारतीय कलाचिंतन में नहीं रही।
पश्चिम
के प्राचीन काव्यशास्त्रियों (यूनानी दार्शनिक प्लेटो और अरस्तू आदि) के चिंतन से
अलबत्ता ऐसा प्रतीत होता है कि जिसे आज हम कलावाद कहते हैं, उसका कोई पूर्वरूप प्लेटो जैसे चिंतक को अपने समय में अवश्य नजर आया
होगा, अन्यथा वह सामाजिक-नैतिक दृष्टि से कलाओं के प्रति
इतना सशंकित न होता कि उसे आदर्श गणराज्य से कवियों-कलाकारों को बहिष्कृत कर देने
का प्रस्ताव करना पड़ता।
कलावाद
अपने आधुनिक रूप में तब प्रकट हुआ जब फ्रांस में सन 1866 के आसपास ‘कला कला के लिए' (‘ल आर्त पोर ल आर्त') जैसे
सिद्धांत की घोषणा की गई। इस सिद्धांत के उद्घोषक के रूप में मैक्लीन ह्वीस्लर (1834-1903) की
विशेष ख्याति हुई। फ्रांसीसी कवि बोदलैर तथा अंग्रेज लेखक आस्कर वाइल्ड ने ‘कला कला के लिए' (आर्ट फार आर्ट्स सेक) के आग्रह का समर्थन किया। कला को किसी भी
प्रकार के उपयोगितावाद से जोड़कर देखने या उसे किसी भी प्रकार के उपदेशात्मक
प्रयोजन से संबंधित करने के विचार को खारिज करते हुए रैंमी द गूर्मा ने तो यहां तक
कह दिया कि ‘व्यक्ति
या समाज के उत्कर्ष के उद्देश्य से कला को स्वीकार करना वैसा ही है, जैसे कि गुलाब की प्रशंसा इसलिए की जाए कि उससे कोई ऐसी औषधि तैयार
की जाती है, जो आंखों के लिए उपयोगी है।'
सामाजिक
जीवन से कला के पृथककरण पर आधारित कलावाद के सिद्धांत को तब और हवा मिली जब यथार्थवाद
के विरुद्ध संघर्ष में ‘बूज्र्वा
सौंदर्यशास्त्रियों ने कला के आंतरिक ‘स्वध्येय' और ‘निरपेक्ष
स्वरूप' का प्रचार किया। कला के संज्ञानात्मक, विचारधारात्मक तथा सामाजिक महत्व और युग की व्यावहारिक अपेक्षाओं से
कला के संबंध की अस्वीकृति ने इस दावे को जन्म दिया कि कलाकार समाज के प्रति किसी
भी प्रकार के दायित्व से सर्वथा स्वतंत्र रह सकता है।
आधुनिककाल
में कलावाद का संबंध रूपवाद से भी जोड़ा जाता है। सन 1917 में रूस के पैत्रोग्राद नगर में विक्टर श्लोव्स्की ने रूपवाद (फार्मलिज्म)
का अभियान छोड़ा। श्लोव्स्की का मानना था कि उसके समकालीन लेखक तथा आलोचक साहित्य
के नैतिक और सामाजिक मूल्यों से इस तरह आक्रांत हो गए थे कि शिल्प-सौंदर्य तथा
भाषा के लालित्य की उपेक्षा होने लगी। श्लोव्स्की के अनुसार रचनाकार का प्रधान
दायित्व साहित्य की कला तथा भाषा के प्रति ही होना चाहिए। समाज के प्रति उसका
दायित्व गौण है। नीतिशास्त्र और समाजशास्त्र के तकाजों से कला के तकाजे का यही
अंतर है कि कला में आनंद ही प्रधान तत्व है। इस आनंद की सिद्धि के लिए शिल्प-विधि
तथा भाषा की शक्तियों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता पर बल देना रूपवाद और कलावाद, दोनों को अभीष्ट रहता है।
कलावाद
की चिंता इस बात को लेकर कि कला में क्या है, उतनी
नहीं होती जितनी इस बात को लेकर कि कला में जो है, वह ‘कैसे है'। इस तरह की उक्तियां कलावादियों के मुंह से अक्सर सुनने को मिलती रहती हैं।
हिंदी
में हमारे समकालीनों में, कइयों में कलावादी रुझानों की पहचान की जा सकती है, विशेषकर उनमें, जो ‘कला के समय’ की
अवधारणा को इतिहास के समय की अवधारणा से अलगाने में विश्वास रखते हैं। ऐसे
कला-चिंतक मानते हैं कि कलानुभव अपने शुद्ध और स्वायत्त रूप में मूलत: और अंतत:
किसी सामाजिक परिवर्तन के संस्करण या अनुषंग नहीं होते हैं। इस रूप में कलावाद के तत्व अज्ञेय और
निर्मल वर्मा के यहां प्राय: मिलते देखे जाते हें।
हमारे
समय के कुछ कृतिकार और कला-चिंतक ऐसे भी हैं, जो अपने
को कलावादी कहलाना पसंद नहीं करते, लेकिन
कला संबंधी अपने स्वतंत्र विचारों को प्रस्तुत करने में, कलावादी कहे जाने का जोखिम उठाने से संकोच भी नहीं करते। मसलन, अशोक वाजपेयी यह तो मानते हैं कि कलाओं के सामाजिक आशय और स्रोत होते
हैं, किंतु यह मानना उनको उचित नहीं लगता कि कला अपने
सामाजिक आशयों तक ही सीमित रहती है या उन्हीं से प्रेरित, रची और समझी जा सकती है। उनका दृढ़ मत है कि साहित्य और कलाएं
ऐतिहासिक-सामाजिक समय के बरक्स ‘अपना समय' खुद रचती हैं। "कलाएं ऐतिहासिक और सामाजिक
समय से परे भी एक दूसरा समय रचती हैं : समानांतर समय, यमयांतर प्रतिसमय। अगर हम यह न पहचान सकें और सिर्फ उनकी
सामाजिक-ऐतिहासिक नियति पर ही ध्यान केंद्रित किए रहेंगे, तो हम मनुष्य को साहित्य या कलाएं क्यों चाहिए- इस प्रश्न का उत्तर
पाने में असमर्थ रहेंगे।... कलाओं का अपना जनपद होता है, अपना स्वराज।''
No comments:
Post a Comment
धन्यवाद