Friday, January 30, 2015



प्रविष्टि-6
भरतनाट्यम

     भारतीय शास्त्रीय नृत्यों में भरतनाट्यम्श्रेष्ठतम नृत्यों में गिना जाता है। इस नृत्य का संबंध दक्षिण भारत से और मुख्यतः तमिलनाडु से है। इस नृत्य का संबंध प्रत्यक्षतः भरत के नाट्यशास्त्रसे है। प्रायः ऐसा माना जाता है कि इस नृत्य की परंपरा दो हजार वर्षों से चली आ रही है। ऐसी मान्यता है कि इस नृत्य का आरंभ दक्षिण भारत के तंजवौर में हुआ। यह वह नृत्य है जिसमें अभिनय समाविष्ट रहता है। दक्षिण भारत के मंदिरों में देवताओं की आराधना के लिए प्रस्तुत किये जानेवाले इस नृत्य को शास्त्रीय क्रम में रखा जाता है जिसमें उसकी गति के अनुसार अलारिप्पु, जतिस्वरम्, शब्दम्, पदवार्णम, जावली और तिल्लाना (भक्तिकाव्य) का उपयोग होता है। इस नृत्य में संगीत के समस्त अंगों और उपांगों का प्रयोग शास्त्रीय विधि से होता है। दक्षिण भारत के प्रसिद्ध ग्रंथ शिलप्पदिकारम्को भरतनाट्यम का कूल बताया जाता है जिसके पाँच अध्यायों में तमिल क्षेत्र के महत्वपूर्ण नृत्यों का विस्तृत परिचय है। तंजवौर में प्रचलन के कारण इसका पुराना नाम तंजाव्वुरनाट्यम्था।

      ऐसा माना जाता है कि दसवीं सदी के बाद भरतनाट्यम्का विकास तमिलनाडु के सभी क्षेत्रों में होने लगा। तंजवौर के चोल राजाओं के संरक्षण से इस नृत्य का बहुत विकास हुआ और मंदिरों में नर्तकों की संख्या बढ़ी। नायक और मराठा राजाओं ने इसके विकास पर बहुत ध्यान दिया। उन्नीसवीं सदी के आरंभ में राजा सरफोजी के शासन काल में तंजबैर के चिन्नैया, पुन्नैया, शिवनंदनम् और वाडिवेलु जैसे संगीतज्ञों ने भरतनाट्यम्के सौंदर्य को तराशते हुए उसमें बहुत परिष्कार किया। इसके बाद नृत्त’,‘नृत्यऔर अभिनयकलाओं का प्रयोग इसमें किया जाने लगा। नृत्तमें अंग संचालन, ‘नृत्यमें भाव सहित अंग संचालन और अभिनयमें भाव और रस के अनुकूल शारीरिक क्रियाओं द्वारा नाट्याधारित अभिव्यक्ति की जाती है।

      इस समय प्रचलित भरतनाट्यम्में पदवर्णम् की प्रस्तुति में नृत्त, नृत्य और नाट्य अभिनय-इन तीनों का समान महत्व है। भरतनाट्यममें नृत्य के तीन मूलभूत तत्वों को विशेष रूप से सम्मिलित किया गया है :
1.     भाव अथवा मन
2.     राग अथवा संगीत और स्वर माधुर्य
3.     तल अथवा काल समंजन।
      इस नृत्य की तकनीक में हाथ, पैर, मुख और देह संचालन के समन्वयन के 64 सिद्धान्त हैं जिन्हें इसकी शिक्षा में मुख्य माना जाता है। इस नृत्य में दर्शनशास्त्र, धर्म और विज्ञान को जीवन के तीन मूल तत्वों के रूप में देखा जाता है।

      यह ध्यान देने की बात है कि इस नृत्य की नृत्यकार स्त्रियाँ हैं। वे मूर्तियों के अनुसार अपनी मुद्राएँ निर्मित करती हैं और सदैव घुटने मोड़ कर नृत्यरत होती हैं। यह नृत्य अनुनादी नृत्य है और परिश्रमसाध्य भी। इसमें ऐसा जान पड़ता है कि देह त्रिभुजाकार हो, एक हिस्सा धड़ से उपर तथा दूसरा नीचे। यह शरीर के भार के नियंजित संतुलन और नीचे के अंगों की सुदृढ़ स्थिति पर आधारित होता है। इससे हाथों को एक पंक्ति में आने, शरीर के चारों और घुमाने तथा मूल स्थिति को ठीक से व्यवस्थित करने में मदद मिलती है।

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