प्रविष्टि-5
आधुनिक भाषाविज्ञान के प्रमुख स्कूल
बीसवीं शताब्दी में पहली बार भाषा का व्यवस्थित
अध्ययन शुरु हुआ। इससे पहले दूसरे शास्त्रों (जैसे : दर्शनशास्त्र, इतिहास
अथवा काव्यशास्त्र) के अंग के रूप में भाषा का अध्ययन होता रहा है, पर उसका लक्ष्य भाषा कभी नहीं थी। दूसरे शास्त्र जहाँ भाषा के अध्ययन के
माध्यम से अपने लक्ष्य तक पहुंचते हैं, वहीं भाषाविज्ञान में
भाषा स्वयं लक्ष्य होती है। इस प्रकार भाषा का भाषा के लिए अध्ययन इस युग की सबसे
बड़ी उपलब्धि है। ऐसे विशेष अध्ययन के लिए कई विचार सामने आए। इन विचारों को ‘भाषाविज्ञान के विभिन्न स्कूल’ के रूप में जाना जाता है।
जेनेवा स्कूल, प्राग स्कूल, लंदन स्कूल और अमेरिकन स्कूल –
आधुनिक भाषाविज्ञान के कुछ प्रमुख स्कूल हैं।
जेनेवा स्कूल :
आधुनिक भाषाविज्ञान के अध्ययन में जेनेवा स्कूल का
महत्वपूर्ण स्थान है। स्विस भाषाविज्ञानी फ़र्डिनांड डी सस्युर (1857-1913) इस
स्कूल के महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हैं। वे जेनेवा में भाषाविज्ञान पढ़ाते थे। उनके
विचार और सिद्धांत इस स्कूल के उदय की पृष्ठभूमि हैं। उनकी किताब ‘कोर्स डी लिंग्विस्टिक जेनेरल’ इस स्कूल से जुड़ी हुइ
सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह पुस्तक उन्होंने व्यवस्थित रूप से नहीं लिखी,
बल्कि यह कक्षा में दिए गए उनके भाषणों का संकलन है। इसके संकलन और
प्रकाशन का काम उनके शिष्यों चार्ल्स बेली और अल्बर्ट सेशेहे ने उनकी मृत्यु के
बाद किया। यहाँ सस्युर के सिद्धांतों को संक्षेप में जान लेना आवश्यक है –
1. सस्युर ने भाषा का एककालिक (सिनक्रॉनिक) और
अनेककालिक (डायक्रॉनिक) अध्ययन प्रस्तावित किया है। एककालिक अध्ययन में किसी काल
विशेष में संप्रेषण की स्वतःपूर्ण व्यवस्था के रूप में भाषा का अध्ययन होता है और
अनेककालिक अध्ययन में भाषा के ऐतिहासिक विकास का। इस प्रकार भाषा का एककालिक
अध्ययन वर्णनात्मक अथवा संरचनात्मक होता है और अनेककालिक अध्ययन ऐतिहासिक।
2. भाषा विचार और ध्वनि के बीच की कड़ी होती है।
शब्द और अर्थ का संबंध यादृच्छिक और रूढ़ होता है। इन दोनों भाषिक इकाइयों (शब्द
और अर्थ) को सस्युर क्रमशः संकेतक (सिग्निफायर) और संकेतित (सिग्निफायड) मानते
हैं। उनका मानना यह भी है कि ये दोनों भाषिक इकाइयाँ प्रतीक हैं। वास्तव में ये
प्रतीक अमूर्त अर्थ को मूर्त रूप देने का काम करते हैं।
3. व्यक्ति भाषा का उत्पादन या अभिव्यक्ति करता है।
अभिव्यक्ति सामूहिक नहीं होती। अभिव्यक्ति की इसी व्यक्तिगत क्षमता को सस्युर वाक्
(पैरोल) कहते हैं। किसी समाज में सभी व्यक्तियों के मन में अंकित व्यवस्था की
सामूहिक राशि ही भाषा (लैंग) होती है। भाषा दरअसल स्वतःसंपूर्ण व्यवस्था है।
4. सस्युर की मान्यता है कि भाषा एक संरचना है।
भाषिक इकाइयों से संरचना का निर्माण होता है। इकाइयों से बनी संरचना में
संरचनात्मक (सिन्टैग्मैटिक) संबंध होता है। संरचना के स्थानों पर जो इकाइयाँ होती
हैं, उनमें
रूपावलीपरक (पैराडिग्मैटिक) संबंध होता है।
सस्युर के बाद उनके शिष्य चार्ल्स बेली और अल्बर्ट
सेशेहे इस स्कूल के दो प्रमुख आधार स्तंभ रहे। सस्युर के सिद्धांतों को आगे बढ़ाने
का काम इन्होंने ही किया।
बेली
का कार्य तर्कसम्मत योजना के अनुसार किया गया कार्य है। वे भाषा के एककालिक अध्ययन
पर बल देते हैं। उन्होंने विचार और उसकी भाषिक अभिव्यक्ति के बीच संबंध की समस्या
को सुलझाने का प्रयत्न किया, शैली विज्ञान के अध्ययन में अभिरुचि पुनः जाग्रत की और पैरोल वाक् में
होनेवाले व्यतिक्रम का लैंग भाषा की व्यवस्था पर प्रभाव का भी अध्ययन किया।
सेशेहे सस्युर के सिद्धांतों को शिक्षण के क्षेत्र
में लागू करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने एक व्याकरणिक पद्धति विकसित करने का
प्रयत्न किया।
प्राग स्कूल :
प्राग स्कूल अथवा प्राग सर्कल प्राग में
भाषाविज्ञानियों का एक महत्वपूर्ण गढ़ था। कोरोलाइन विश्वविद्यालय के प्राध्यापक
विलेम मिथेसिउस इसके प्रणेता थे। उनके साथ उनके समकालीन विद्वानों का जो वैचारिक
आदान-प्रदान हुआ, वही
सिद्धांत रूप में प्राग स्कूल का वैचारिक आधार बना। मिथेसिउस ने सन 1911 ई. में
इतिहास से भिन्न परिप्रेक्ष्य में भाषा के अध्ययन का आह्वान किया।
प्राग
स्कूल ने प्रकार्यों (फंकशन्स) के आधार पर भाषा का अध्ययन करना शुरू किया। इस
प्रकार इसने प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (फंक्शनल लिंग्विस्टिक्स) को जन्म दिया।
भाषा के इस प्रकार्यात्मक अध्ययन में दो भिन्न तरह के प्रकार्य आते हैं – (क) संप्रेषण-प्रक्रिया से संबंधित
प्रकार्य और (ख) भाषा का समाज के परिप्रेक्ष्य में प्रकार्य। प्राग स्कूल के
भाषाविज्ञानियों ने समस्त भाषा के प्रयोग के संदर्भ में भाषा के प्रत्येक
संरचनात्मक अवयव के प्रकार्यों का अध्ययन करना शुरू किया, शैली
की भाषावैज्ञानिक व्याख्या की, भाषा के सौंदर्यपरक प्रकार्य
तथा साहित्य में उसके महत्व का अध्ययन किया और आधुनिक समाज में मानक भाषा की
भूमिका का अध्ययन किया।
वर्णनात्मक
भाषाविज्ञान जहाँ भाषा का संरचनात्मक विवरण प्रस्तुत करता है, वहीं प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान
विभिन्न भाषिक अवयवों की क्रिया और उनके पारस्परिक असर की वयाख्या करता है। रूसी
भाषाविज्ञानी निकेलायी सेर्गेयेविच त्रुबेत्स्कॉय (1890 – 1938)
ने प्रकार्य सिद्धांत को स्वनिम के क्षेत्र में प्रयोग किया। फ्राँस के
भाषाविज्ञानी आंद्रे मार्टिन ने ध्वनि-परिवर्तन पर विचार करते हुए परस्पर स्वनिमों
की प्रकार्यात्मक उपयोगिता की व्याख्या की। वास्तव में, भाषा
किस प्रकार अपनी स्वन-इकाइयों से विशिष्ट अभिरचनाएँ गढ़ती है, इसकी विवेचना आधुनिक भाषाविज्ञान को प्राग स्कूल
की प्रमुख देन है।
लंदन स्कूल :
जे. आर. फर्थ (1890 - 1960) आधुनिक भाषाविज्ञान के ‘लंदन स्कूल’ के प्रमुख सिद्धांत शास्त्री थे। वे सन 1919 ई.
से 1928 ई. तक पंजाब विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर थे। उन्होंने भारत
प्रवास की इसी अवधि में प्राच्य भाषाओं में काफी रुचि दिखाई और उनपर प्राचीन
भारतीय वैयाकरणों के भाषिक सिद्धांतों का स्पष्ट प्रभाव पड़ा। इसके अतिरिक्त फर्थ
पर मानवविज्ञानी ब्रोनिस्लो मैलिनोस्की के विचारों का भी गहरा प्रभाव पड़ा। सन्
1944 ई. से 1956 ई. तक वे लंदन विश्वविद्यालय के ‘स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड एफ्रिकन स्टडीज़’ में सामान्य भाषाविज्ञान के
प्रोफेसर रहे।
जे.
आर. फर्थ ने ब्लूमफील्ड तथा अन्य अमरीकी संरचनावादी भाषाविज्ञानियों के विपरीत
भाषिक अध्ययन में अर्थ को केंद्रीय महत्व दिया। यही भाषाविज्ञान को उनकी
महत्वपूर्ण देन है। फर्थ ने संरचना के अलग-अलग स्तरों – जैसे व्यंजन-समूह, अक्षर, शब्द आदि में सक्रिय स्वनिमों की बात की। इस
प्रकार उन्होंने स्वनिम के अध्ययन को एक नई दिशा दी।
फर्थ
ने अपने कुछ विद्यार्थियों को इस क्षेत्र में कार्य करने लिए प्रेरित किया। उनके
अनेक विद्यार्थियों ने इस क्षेत्र में काफी उल्लेखनीय कार्य किए। उन विद्यार्थियों
में अन्यतम हैं माईकल हैलिडे। फर्थ के बाद हैलिडे सन् 1965 ई. से 1987 ई. तक लंदन
विश्वविद्यालय में सामान्य भाषाविज्ञान के प्रोफेसर थे। उन्होंने फर्थ के
भाषाविज्ञान संबंधी विचारों पर आधारित एक समग्र व्याकरण का निर्माण करने का प्रयास
किया, जिसे
सिस्टमिक व्याकरण या सिस्टमिक भाषाविज्ञान कहा जाता है। इस व्याकरण के अंतर्गत ध्वनि,
स्वनिम, व्याकरण नियम, शब्द
भंडार एवं संदर्भ सभी पर विचार किया जाता है। हैलिडे का मानना है कि भाषा के
विश्लेषण में संदर्भ का महत्व है, क्योंकि अर्थ संदर्भ का ही
प्रकार्य है।
फर्थ
के अनुयायियों (नव्य फर्थवादियों) में हैलिडे एक महत्वपूर्ण भाषाविज्ञानी हैं।
स्पष्ट है कि फर्थ के विचारों का भाषाविज्ञान की दुनिया पर व्यापक प्रभाव पड़ा।
प्रारंभ में अमरीकी भाषाविज्ञानियों ने उनके सिद्धांतों की उपेक्षा की, पर आगे चलकर यह उपेक्षा कम होती गई
और नए भाषिक चिंतन में उनके विचारों के प्रति एक नई स्वस्थ अभिरुचि दिखाई पड़ने
लगी।
अमेरिकन स्कूल :
आधुनिक भाषाविज्ञान के विकास में अमेरिका के
भाषाविज्ञानियों का योगदान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। फ्रांज बोआस, ब्लूमफील्ड, केनेथ पाइक, एडवर्ड सपीर, बेंजामिन
ली व्होर्फ, नोम चॉम्स्की आदि भाषाविज्ञानियों के सिद्धांतों
को ही आधुनिक भाषाविज्ञान का अमेरिकन स्कूल कहा जाता है। यहाँ इनमें से कुछ
महत्वपूर्ण भाषाविज्ञानियों के सिद्धांतों को जान लेना आवश्यक है -
फ्रांज बोआस :
फ्रांज बोआस (1858 - 1942) नृविज्ञानी थे। उन्होंने उत्तरी अमेरिका की
आदिवासी जातियों का अध्ययन किया था और वहाँ के मूल निवासियों की अनेक भाषाओं का
सर्वेक्षण भी किया था। वह सर्वेक्षण सन् 1911 ई. में ‘हैंडबुक ऑफ अमेरिकन इंडियन लैंग्वेजेज़’ नाम से प्रकाशित हुआ। बोआस ने इस पुस्तक की एक
विस्तृत भूमिका लिखी। यही भूमिका अमेरिका के वर्णनात्मक भाषाविज्ञान
(डेस्क्रिप्टिव लिंग्विस्टिक्स) का आधार है।
बोआस
ने जिन भाषाओं का अध्ययन किया, वे सर्वथा अज्ञात थीं। लिखित रूप में उपलब्ध नहीं थीं। पहले कभी उनका कोई
अध्ययन नहीं हुआ था। वे भाषाएँ अन्य भाषाओं से इतनी भिन्न थीं कि शास्त्रीय
प्रणाली उन पर लागू नहीं हो सकती थी। बोआस का लक्ष्य था वाक्-क्रिया को एकमात्र
आधार मानकर उन भाषाओं की संरचना को बोधगम्य बनाना। इसलिए उनका ध्यान भाषाओं की
संरचना पर अधिक रहा। इस प्रकार भाषा का संरचनात्मक विवरण प्रस्तुत करना वर्णनात्मक
भाषाविज्ञान का महत्वपूर्ण काम है। इसीलिए इसे संरचनात्मक भाषाविज्ञान (स्ट्रक्चरल
लिंग्विस्टिक्स) भी कहा जाता है। वर्णनात्मक भाषाविज्ञानियों का ध्यान भाषा की
अंतर्निहित सूक्ष्मताओं पर नहीं गया। यह एक प्रकार का अमूर्त भाषिक सिद्धांत था।
वर्णनात्मक भाषाविज्ञानियों ने भाषिक तथ्यों के आधार पर सार्वभौम भाषा-सिद्धांत की
स्थापना नहीं की। आगे चलकर सार्वभौम भाषिक सिद्धांत की स्थापना की दिशा में नोम चॉम्स्की
ने महत्वपूर्ण कार्य किया।
लियोनार्ड ब्लूमफील्ड :
सन 1930 ई. से 1960 ई. तक भाषाविज्ञान के क्षेत्र
में वर्णनात्मक भाषाविज्ञान अथवा संरचनात्मक भाषाविज्ञान छाया रहा। इसके विकास में
लियोनार्ड ब्लूमफील्ड का का उल्लेखनीय योगदान है। उनकी पुस्तक ‘भाषा’ (लैंग्वेज) सन 1933 ई. में प्रकाशित हुई।
ब्लूमफील्ड
पर व्यवहारवादी मनोविज्ञान का काफी प्रभाव था। भाषा को वे सामाजिक व्यवहार की
वस्तु मानते थे। सामाजिक व्यवहार की तरह ही भाषा की उक्तियों को भी वे वाक्
व्यापार (स्पीच इवेंट्स) मानते थे। उनका भाषा विश्लेषण इस आधार पर शुरू होता था कि
भाषा मूलतः उच्चरित है। लिखित रूप भाषा नहीं है, बल्कि उच्चरित भाषा को दृश्य प्रदान करने का एक
तरीका है। अतः भाषाविज्ञान का अध्ययन उच्चरित भाषा का होगा। साथ ही कोई भी वाक्
व्यापार भाषा के अध्ययन का विषय हो सकता है।
ब्लूमफील्ड भाषाविज्ञान को विज्ञान मानते थे।
इसलिए वे ऐसे किसी भी सिद्धांत में विश्वास नहीं करते थे जिसका भौतिक परीक्षण न हो
सके। उद्दीपन (स्टीमुलस) और अनुक्रिया (रेस्पॉन्स) को उन्होंने हर वाक् व्यापार के
अध्ययन का आधार बनाया। उनके भाषिक अध्ययन का क्षेत्र सिर्फ वाक् व्यापार है, अर्थ नहीं। उनका मानना है कि अर्थ
मन में होता है और उसका भौतिक परीक्षण संभव नहीं। वाक् व्यापारक प्रत्यक्षतः सामने
है और उसी का अध्ययन हो सकता है।
केनेथ पाइक :
केनेथ पाइक अमेरिका के महत्पूर्ण भाषाविज्ञानी थे।
उन्होंने भाषाविज्ञान की जिस पद्धति का विकास किया, उसे टैग्मीमिक्स कहा जाता है। टैग्मीमिक्स नया नाम
था और भाषा विश्लेषण की तकनीकी नवीनता का परिचायक था।
ध्वनि से वाक्य तक के रचनागत अधिक्रम या
उर्ध्वाधरक्रम (हायररकी) वाले व्याकरणों को टैक्सोनोमिक ग्रामर कहा जाता है। यह
दरअसल भाषा का संरचनात्मक अथवा वर्णनात्मक अध्ययन ही है। इसी परंपरा में
ब्लूमफील्ड के व्याकरण में सुधार करते हुए केनेथ पाइक ने अपने ढंग से व्याकरण की
रूपरेखा प्रस्तुत की।
एडवर्ड सपीर :
एडवर्ड सपीर (1884 - 1939) ने भाषा के यांत्रिक और
तकनीकी पद्धति से होनेवाले अध्ययन को नकार दिया। वे वक्ता की भाषिक चेतना को महत्व
देते हैं। इस प्रकार ब्लूमफील्ड के व्यवहारवादी अथवा यांत्रिक पद्धति के विपरीत
उन्होंने अधिक मेंटलिस्टिक पद्धति अपनायी। मेंटलिस्टिक पद्धति (मेंटलिज़्म / मानसवाद) भाषा और मस्तिष्क के बीच के संबंध को
व्याख्यायित करती है। इसमें भाषा यथार्थ के अभिग्रहण को प्रभावित करती है और
मानव-संसार भाषा द्वारा नियंत्रित होता है। सपीर के विद्यार्थी बेंजामिन ली
व्होर्फ (1897 - 1941) ने आगे चलकर उन्हीं के विचारों का विकास किया। उसे ही सपीर-व्होर्फ हाइपॉथिसिस के नाम से जाना जाता है।
नोम चॉम्स्की :
नोम चॉम्स्की पोलैंड मूल के अमरीकी भाषाविज्ञानी
हैं। उन्होंने दर्शन, गणित,
तथा राजनीति विज्ञान का भी अध्ययन किया है। पहले उन्होंने
संरचनात्मक या वर्णनात्मक भाषाविज्ञान की परंपरा
में ही भाषा का अध्ययन करना शुरू किया। पर, आगे चलकर भाषा के
संरचनात्मक अध्ययन से वे अलग होते गए। अपनी पुस्तक ‘ऐस्पेक्ट्स ऑफ द थ्योरी ऑफ सिन्टैक्स’ (1965) में उन्होंने अर्थ
तत्व को आंतरिक संरचना के विश्लेषण में स्थान देने की बात कही। इस प्रकार उन्होंने
पाया कि संरचनात्मक विश्लेषण केवल वाक्य संरचनाओं में मिलनेवाली सतही समानता को ही
पकड़ पाता है। इससे समान दिखनेवाले किंतु आंतरिक रूप से (अर्थ की दृष्टि से) भिन्न
संदिग्ध वाक्यों की व्याख्या नहीं हो पाती। इन्हीं समस्याओं के कारण उन्होंने अपनी
पुस्तक ‘सिन्टैक्टिक स्ट्रक्चर्स’ (1957) में पदबंध संरचना में शब्द देकर अलग-अलग
वाक्यों की रचना करने की बात कही।
संरचनात्मक
भाषाविज्ञान के लिए वाक्-व्यवहार ही भाषिक अध्ययन का आधार होता था। उनके लिए वक्ता
की भाषा विषयक अवधारणा का कोई महत्व नहीं था। चॉम्स्की ने भाषा के आदत और अर्थ से
अलग सिर्फ संरचनात्मक विश्लेषण का विरोध किया। उनका मानना है कि भाषा का अस्तित्व
वक्ता के मस्तिष्क में होता है, सिर्फ आदत या वाक्-व्यवहार में नहीं। आदत या व्यवहार द्वारा भाषा के अर्जन
के बजाय उन्होंने भाषा की सृजनात्मकता (क्रिएटिविटी) को अधिक महत्व दिया। सबसे
पहले चॉम्स्की ने ही भाषा विश्लेषण के संदर्भ मानव बुद्धि को महत्व दिया। उनका
व्याकरणिक सिद्धांत रूपांतरण-निष्पादनात्मक व्याकरण (ट्रांस्फॉर्मेशनल जेनरेटिव
ग्रामर) कहा जाता है।
चॉम्स्की
ने भाषा में कई सार्वभौम तत्वों की तलाश की। मसलन सभी भाषओं में संज्ञा और क्रिया
शब्द होते हैं। इन सार्वभौम तत्वों के कारण भाषाओं के विश्लेषण की एक सामान्य या
सार्वभौम रूपरेखा प्रस्तुत की जा सकती है।ब्लूमफील्ड भाषा को आदतों का समुच्चय
मानते थे; जबकि चॉम्स्की भाषा को सीमित
नियमों का समुच्चय कहते हैं, जिनसे व्यक्ति असीमित वाक्यों की रचना कर सकता
है। इसीलिए भाषा सिर्फ व्यवहार नहीं, बल्कि नियमबद्ध व्यवहार
(रूल गवर्न्ड बिहेवियर) है।
भाषाविज्ञान के क्षेत्र में चॉम्स्की का काफी
प्रभाव पड़ा। दूसरी विचारधाराएँ उनके प्रभाव में प्रायः खत्म हो गयीं। भाषिक
विश्लेषण के क्षेत्र में पूरे विश्व में उनके मॉडल पर काफी काम हुआ। बहरहाल
भाषाविज्ञान के क्षेत्र में उनके प्रभाव को देखते हुए साठ के दशक से अब तक के युग
को हम चॉम्स्की युग कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
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धन्यवाद