प्रविष्टि-7
मेवाती
भाषा : मेवाती बोली का
संबंध मेवात अंचल से है। जो दिल्ली के निकट दक्षिण में हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश की सीमाओं तक फैला हुआ है।
वर्तमान में राजस्थान प्रदेश के पूर्वी
जिलों अलवर भरतपुर और हरियाणा के गुड़गाँव नूह मेवात पलवल जिला और उत्तरप्रदेश के मथुरा जिले की कोसी
तहसील तक की सीमाओं तक मेव आबादी फ़ैली हुई है। मेवात का नामकरण इस अंचल में
इस्लाम मतावलंबी उस मेव समुदाय की प्रधानता से हुआ। जो अपनी जीवन पद्धति की बहुत सी बातों में हिंदू
समुदाय के नजदीक रहा है। बहुत सी बातें ऐसी हैं, जिनमें मेवात के मेव एवं हिंदू एक दूसरे के बहुत पास
हैं। पहली बात यह है कि इस अंचल के दोनों समुदाय एक ही बोली बोलते हैं- मेवाती
। दूसरी बात यह है कि मेव समुदाय आम हिंदुओं की तरह गोत्र बचाकर विवाह करता है।
सांस्कृतिक तौर पर जहाँ यह इस्लाम को अपनाता है। वहीं अपने पड़ोस की ब्रज और राजस्थानी संस्कृति की
विशेषताओं को भी अपने भीतर समेट लेने से परहेज नहीं करता। यद्यपि देश के आजाद होने
के बाद नई स्थितियों में इन नजदीकियों को एक तरह का ग्रहण -- सा लगता दिखाई देता
है। दोनों का अतीत एकता और एकजुटता का रहा है। इस अतीत ने दोनों को एक सांस्कृतिक
धागे में पिरोए रखा है। मेवाती के तीन रूपों को दर्शानेवाला एक दोहा मेवात में
प्रचलित है----
ज्ञान भयाने नीपजै नाईवाड़े मल्ल।
चतराई आरेज में तीनूं बात असल।
उपर्युक्त दोहे के अनुसार मेवाती बोली के तीन प्रमुख
क्षेत्र हैं—भयाना, नाईवाड़ा और आरेज। भयाना
क्षेत्र की विशेषता उसके ज्ञान की गतिविधियों में ज्यादा शामिल होना बतलाया गया है। जबकि नाईवाड़ा क्षेत्र के लोगों को मल्ल विद्या
(कुश्ती) में खास रुचि रखनेवाला बताया गया है। तीसरे बोली क्षेत्र -- आरेज को
चतुराई के लिए जाना जाता है। इनमें भयाना राजस्थान के भरतपुर जिले में है। ऐसा
लगता था कि यह बयाना का अपभ्रंश है, क्योंकि भरतपुर के बसने के
बहुत पहले से बयाना एक प्राचीन सत्ता केंद्र था। बाबर को बयाना में पहली बार पराजय
का मुंह देखना पड़ा था। नाईवाड़ा मेवों की एक पाल है। जिसका संबंध खासतौर से अलवर जिले के उन क्षेत्रों से
है। जो लड़ाकू रूप में मशहूर रहे हैं। यह मेवाती का
पश्चिमी क्षेत्र है। इसका केंद्रीय और मध्यवर्ती क्षेत्र आरेज है। जो सिंचाई की दृष्टि से उर्वर होने के कारण आबरेज
कहलाया। कालांतर में मुख-सुख की वजह से यह आरेज के रूप में प्रचलित हो गया। इस
क्षेत्र में अरावली पर्वतमाला की पूर्वी और पश्चिमी ढालों से छोटी-छोटी नदियां प्रवाहित
हैं।
हरियाणा की अहीरवाटी--राठी क्षेत्र से मेवाती का
पश्चिमी रूप प्रभावित रहा है, जैसे
पूर्वी रूप ब्राज से। ब्रज क्षेत्र के नजदीक होने की वजह से मेवाती के क्रियारूप
ब्राजभाषा के क्रियारूपों जैसे हैं। केवल ध्वनि का अंतर है।
मेवाती राजस्थानी के मूर्धन्य ध्वनियों के अनुरूप चलती है। जबकि ब्राज में दंत्य ध्वनियों का कोमलकांत प्रवाह
अधिक है। इससे मेवाती के स्वरूप में बुनियादी बदलाव आता चला गया है। यदि इसके
ध्वनि विन्यास और कुछ सर्वनाम रूपों को छोड़ दें तो मेवाती और ब्रज में ज्यादा
फर्क नजर नहीं आता। इसीलिये यहां एक कहावत प्रचलित है।
ब्राज की रज दुर्लभ देवन कू/कछु जाटन कू कछु मेवन
कू।
लोकसंस्कृति
: मेवात में अरावली पहाड़ को काला पहाड़ के नाम से जाना जाता है। इस आधार पर इसके
तीन भौगोलिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र हैं-- (1) पहाड़ ऊपर, (2) आरेज/आबरेज (3) भयाना। ये क्रमश: पश्चिमी मध्यवर्ती और पूर्वी क्षेत्र हैं। इनमें एक मिलीजुली
लोक संस्कृति का विकास हुआ। मेवात की लोकसंस्कृति मध्यकाल में विकसित हुई। इसमें
हिंदू और इस्लामी जीवन पद्धतियों का समन्वय इस तरह हुआ है कि दोनों समुदायों की
भिन्नता में एकता इस अंचल की अलग विशेषता प्रकट करती है। जो भारतीय संस्कृति का मूलाधार है। दोनों समुदाय
मिलकर एक हजार सालों से भी ज्यादा समय से साथ रह रहे हैं। मेव दिल्ली के निकट
अरावली पर्वतमाला में रहनेवाले कबीलों से विकसित हुए समुदाय हैं। यही वजह है कि
मेवों और मीणा जनजाति की सामाजिक बुनावट में बहुत सी बातें समान
हैं। इतिहास के विद्वान मानते हैं कि दिल्ली के मुसलमान शासकों के सत्ता में आने
के बाद दिल्ली के नजदीक रहनेवाले मेव-मीणों की जीवन पद्धति पर इस्लाम के भाईचारे
का असर पड़ा है। ये जब धार्मिक तौर पर अलग हुए तो भी इस्लाम मतावलंबी मेव--मीणा समुदाय केवल मेव संज्ञा से पहचाने गए।
कालांतर में मेव और मीण अलग हो गए यद्यपि उनकी पाल और गोत-व्यवस्था में बहुत कुछ
समानता है। माना जाता है कि मेव--मीणा समुदाय में इस्लाम को मान्य कराने में हजरत
सैयद सालार की बहुत बड़ी भूमिका है। यही कारण है कि मेव इनके झंडे की पूजा करते
हैं। इस्लाम को स्वीकार करने के बावजूद मेव समुदाय ने अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए
रखने की कोशिश की। इसलिए वे इस्लाम मतावलंबी शासकों से टकराते रहे। 1249 में बलवन ने नृशंसतापूर्वक हजारों मेवों को मौत के
घाट उतरवा दिया। इसके बावजूद मेवों ने अपनी पहचान को बनाए रखा। ये मीणों से जुड़े हिंदू रीति-रिवाजों को भी इस्लाम के साथ - साथ मानते रहे। दरिया खान और शशिबदनी
की प्रेम कथा और विवाह की बात जाहिर करती है कि एक जमाने में विवाह संबंध भी बने
हुए थे। इनके उत्पादन संबंध पशुपालन, जंगल और खेती--बाड़ी से निर्मित हुए।
लोक साहित्य : मेव समुदाय ने अपनी भावनाओं-विचारों
को मेवाती बोली में प्रकट किया। ये बातों और दूहों के रूप में
खास तौर पर सामने आए। 18वीं सदी के अराजकतापूर्ण काल
में मेवों ने अपनी स्वाधीनता तथा पहचान को बनाए रखने के लिए कई अवसरों पर सत्ता को
सीधी चुनौती थी। जिनको यहां के मीरासियों ने बातों के रूप में गा-गा कर प्रस्तुत किया
था। इसे बात साहित्य का नाम दिया गया। बात साहित्य में मेवों के संघर्षों के
साथ-साथ इनकी सामाजिक व्यवस्था और संस्कृति का भी पता चलता है। ब्राज अंचल से
मेवात की सीमा सटी होने की वजह से ब्रज की लोक कथाओं को मेवाती स्वरूप प्रदान कर
ब्रज - संस्कृति से अपनी नजदीकी और एकजुटता प्रदर्शित की गई है। मेव समुदाय कन्हैया जी से अपना संबंध बतलाने में
गर्व का अनुभव करता है। सादल्ला द्वारा रचे गए महाभारत पर आधारित पंडून के कड़े
मेवाती की प्रसिद्ध लोकगाथा के रूप में प्रचलित हैं। नबीखाँ मेव ने भी इन कड़ों का
विस्तार किया है। मेवाती लोकगीत, लोक संगीत
और लोक कलाएं इस संस्कृति को खास पहचान देती हैं। इनके अलावा, मेवात के लोक कवियों में राजू] खक्के] दानशा, लार्ड सन्नू मेवाती, उस्मान फौजी हबीब मीरासी आदि ने मेवाती को एक अलग पहचान दी है।
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