जनवरी 2015 : पहली किस्त
प्रविष्टि
- संवाद
खंड-2
प्रविष्टि-1
आपातकाल
भारत में आपातकाल
(इमरजेंसी) के इक्कीस महीनों (25 जून 1975 से 21 मार्च 1977) को भारतीय लोकतंत्र
का ग्रहण काल कहा जा सकता है। इस अवधि में अभिव्यक्ति की आजादी सहित नागरिकों के
सभी मूल अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था और प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई थी।
जयप्रकाश नारायण सहित विपक्ष के सभी प्रमुख नेताओं को ही नहीं, राजनीति में नैतिक मूल्यों को
स्थापित करने के लिए चल रहे जेपी आंदोलन (जिसे बिहार आंदोलन भी कहा जाता है,
क्योंकि बिहार इस जन उभार के केंद्र में था) के अधिकांश
कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था तथा लोक सभा का कार्य काल, अनुचित तरीके से, एक साल बढ़ा दिया गया था।
भारत
के संविधान में आपातकाल के लिए तीन व्यवस्थाएँ हैं - (1) युद्ध, बाहरी आक्रमण अथवा सशस्त्र
विद्रोह, (2) राज्यों में संवैधानिक मशीनरी की विफलता तथा
(3) वित्तीय आपातकाल। जनता पार्टी की सरकार द्वारा, जो
आपातकाल के बाद भारी बहुमत से चुनी गई थी, लाए गए बयालीसवें
और चौवालीसवें संशोधन के पहले उपर्युक्त (1) में आंतरिक उपद्रव का भी प्रावधान था।
25 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा इसी दावे के आधार पर की गई थी। लेकिन जैसा कि दिन
की तरह स्पष्ट था, इसका एकमात्र उद्देश्य तत्कालीन
प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गाँधी की सत्ता को बचाना था।
कांग्रेस
शासन से बढ़ते हुए जन असंतोष और जेपी आंदोलन के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण इंदिरा
गांधी के पाँवों के नीचे की जमीन कमजोर हो रही थी। फिर भी आपातकाल न लगा होता, अगर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने
उनके चुनाव को, निर्धारित सीमा से अधिक किए गए चुनाव खर्च के
कारण, रद्द नहीं कर दिया होता। कायदे से इसके बाद श्रीमती
गाँधी को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था, पर
उन्होंने लोकतंत्र को स्थगित करने का निर्णय किया। आपातकाल के दौरान उन्होंने
चुनाव खर्च का कानून बदल कर अपनी सत्ता को वैध बनाने की कोशिश की, परंतु तानाशाही पर खड़ी यह सत्ता इक्कीस महीने ही चल सकी, जिसके बाद हुए संसदीय चुनाव में मतदाताओं ने न केवल उन्हें और उनके बड़े
बेटे संजय गांधी को भारी बहुमत से हराया, बल्कि उत्तर भारत
में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिल सकी।
आपातकाल
के दौरान केंद्र सरकार के प्रशासन, खासकर रेल व्यवस्था को चुस्त किया गया और बीस सूत्री
कार्यक्रम पर अमल कम किया गया, शोर ज्यादा मचाया गया। परंतु
सारा माहौल दमन का था। मनमानी गिरफ्तारियाँ हुईं तथा जन आंदोलनों को कुचल दिया गया, जिससे नागरिकों में
आतंक फैल गया। श्रमिक यूनियनों का तो जैसे अस्तित्व ही नहीं रह गया। अलपसंख्यकों
के मुहल्लों पर हमला हुआ और नसबंदी का कार्यक्रम जोर-जबरदस्ती से लागू किया गया। जेलों
में राजनैतिक कैदियों को यंत्रणा दी गई। सर्वोच्च न्यायालय के एक जज ने यह फैसला
दे कर सनसनी पैदा कर दी कि आपातकाल में जीवन का अधिकार भी स्थगित हो जाता है। इससे
पता चलता है कि लोकतंत्र को बहाल करने के बजाय न्यायपालिका भी किस कदर चाटुकार हो
गई थी। आपातकाल की घोषणा को भारी बहुमत से पारित कर संसद अपनी गरिमा पहले ही खो
चुकी थी।
ऐसा नहीं था कि विरोध
नहीं हुआ। शुरू में ही अकाली दल ने प्रतिवाद किया और गिरफ्तारियाँ दीं। राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ, जिस पर
प्रतिबंध लगा दिया गया था, के कार्यकर्ता सत्याग्रह करते हुए
गिरफ्तार हुए। जॉर्ज फर्नांडिस तथा कर्पूरी ठाकुर जैसे नेताओं ने भूमिगत हो कर
अपना विरोध जारी रखा। गुमनाम परचे एक हाथ से दूसरे हाथ तक जाते रहे। पश्चिम बंगाल
में राष्ट्रीय स्तर पर जन साहित्य सम्मेलन आयोजित किया गया। फिर भी, यह उल्लेखनीय है कि आम जनता ने कोई बड़ा प्रदर्शन नहीं किया न जनसभाएँ
हुईं। लेकिन जब उसे वोट देने का मौका मिला, तो उसने शानदार
ढंग से दिखा दिया कि वह तानाशाही के विरुद्ध और जनतंत्र के पक्ष में है।
आपातकाल ने कला और साहित्य की दुनिया को भी
प्रभावित किया। आपातकाल के विरोध में राही मासूम रजा ने ‘कटरा बी आरजू’ नाम की फिल्म बनाई। गुलजार की फिल्म
‘आँधी’ पर प्रतिबंध लगा दिया गया,
क्योंकि इसकी नायिका की सूरत इंदिरा गाँधी से मिलती थी। तत्कालीन
सांसद अमृत नाहटा की फिल्म ‘किस्सा कुरसी का’ आपातकाल के विरुद्ध एक साहसिक फिल्म थी। तमिल,
मलयालम, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं में उपन्यास
लिखे गए और फिल्में बनाई गई। आपातकाल की गूँज सलमान रुश्दी के प्रसिद्ध उपन्यास ‘मिडनाइट चिल्ड्रेन’ में भी सुनाई पड़ती है। कई
नाटक भी खेले गए।
राजनीतिक
हलकों में आपातकाल एक लोकप्रिय मुहावरा बन चुका है। जब भी और जहाँ भी अभिव्यक्ति
तथा प्रतिवाद करने के अधिकार पर अंकुश लगाने की कोशिश की जाती है, इसकी तुलना इमरजेंसी से की जाती है। निःसंदेह यह अनुभव इतना पीड़ादायी था
कि भविष्य में भारत का कोई भी नेता या पार्टी आपातकाल लगाने का साहस नहीं कर
सकेगा।
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धन्यवाद