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Saturday, February 28, 2015





लोक
"लोक' शब्द का प्रयोग कई अर्थों में हुआ है। संस्कृत के "लोक' शब्द का एक अर्थ है "देखने वाला' (लोकृदर्शन)। वह समस्त जनसमुदाय जो इस कार्य को करता है वह "लोक' है। इससे ऐसे शब्द बने-- आलोक, अवलोकन, अलौकिक, लोकोत्तर, लोकायत (जो प्रत्यक्ष को प्रमाण माने)। लोक का विस्तृत अर्थ है-- लोक में रहने वाले मनुष्य, अन्य प्राणी और स्थावर संसार के पदार्थ। ये सब प्रत्यक्ष अनुभव के विषय हैं। इसके अलावा, लाक्षणिक रूप में भूलोक (पृथ्वीलोक), भुवर्लोक (अंतरिक्ष) और स्वर्लोक (द्युलोक) कहा जाता है। इन्हें समग्र रूप से त्रिलोक कहा गया है।
      ऋग्वेद में जो ब्राहृांड की नराकार रूप में जो अवधारणा है, इसके तहत विराट पुरुष के पैर हैं भूलोक, उसकी नाभि है अंतरिक्ष (भुवर्लोक) और उसका सिर है स्वर्लोक। इन तीन लोकों के बारे में कहा गया है कि पृथ्वीलोक में क्रियाशक्ति, भुवलोक में इच्छाशक्ति और स्वर्लोक में ज्ञानशक्ति है। उपनिषदों में भी "लोक' शब्द आया है। जैमिनीय उपनिषद में कहा गया है कि यह लोक अनेक प्रकार से फैला हुआ है, प्रत्येक वस्तु में वह व्याप्त है (3.12)। प्रत्यत्न करके भी उसे नहीं देखा जा सकता है। पाणिनी ने अपनी व्याकरण की प्रसिद्ध रचना "अष्टाध्यायी' में लोक और "सर्वलोक' जैसे शब्दों का उल्लेख किया है और इनकी निष्पत्ति बताई है। उन्होंने अनेक शब्दों की निष्पत्ति बताते हुए लिखा है कि वेद में इसका रूप अमुक है, पर लोक में इसका स्वरूप भिन्न प्रकार के समझना चाहिए। पाणिनी ने वेद से इतर लोक की सत्ता स्वीकार की है। पतंजलि ने "महाभाष्य' के आरंभिक अध्याय में कहा है, "प्रयुक्तो लोकार्थ:'। इसका तात्पर्य है लोक ही शब्द के लिए प्रमाण है। वह मानवीय आचरण का भी एक महत्वपूर्ण पथप्रदर्शक है। वररुचि ने अपने वातिर्कों में "लोक' शब्द का प्रयोग किया है। उन्होंने अनेक स्थान पर इस बात का उल्लेख किया है कि अमुक शब्द का लोक में अनेक रूप में व्यवहार होता है।
      भरतमुनि ने नाट¬शास्त्र के 14वें अध्याय में "नाट¬धर्मी' और "लोकधर्मी' जैसी प्रवृतियों का उल्लेख किया है। महाभारत में "लोकयात्रा', "लोकसंग्रह' जैसे शब्दों का प्रयोग है। भीष्म पर्व में एक कथन है, "लोक संग्रह की इच्छा रखने वाले ज्ञानी अनासक्त होकर कर्म करें (27/25)। इस महाकाव्य में वेद से लोक की भिन्नता प्रतिपादित करते हुए एक कथन है, "वेदाच्य वैदिका:शब्दा सिद्धा लोकाच्च लौकिका:।' महाभारत महाकाव्य में प्रचुर लोकसंग्रह है। भगवद्गीता में है, "अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम:।' इसमें भगवत्गीता में कई स्थानों पर "लोक' और "लोकसंग्रह' जैसे शब्द आए हैं। लोक संग्रह शब्द का प्रयोग साधारण जनता के आचरण और व्यवहार के अर्थ में है।
     भारतीय वाङमय में "लोक' शब्द के विभिन्न अर्थों में चर्चा से "लोक' शब्द की प्राचीनता साबित होती है, किंतु "लोक' के संदर्भ मेें एकवाक्यता संभव नहीं है। इतना जरूर है कि प्राचीन भारत में "शास्त्र' के समानांतर, कई बार विरोध में "लोक' के अस्तित्व का पता चलता है और कुछ विद्वान  शास्त्र और लोक को एक ही भारतीय परंपरा की दो भिन्न अभिव्यक्तियां कहते हैं। लोक को कुछ ने सिर्फ प्राचीन अवशेष के रूप में देखा। कुछ पौर्वात्यवादी पश्चिमी विद्वानों ने "लोक' को असभ्य आचरण या अपने अस्तित्व से अनजान भोले देशी लोगों के अर्थ में लिया।
उड़िया विद्वान कुंज बिहारी दास ने लोकगीतों की परिभाषा के क्रम में "लोक' को व्याख्यायित करते हुए कहा है कि लोकगीत उन लोगों के जीवन की अनायास प्रवाहपूर्ण अभिव्यक्ति है जो सुसंस्कृत तथा सुसभ्य प्रभावों से बाहर, कम या अधिक आदिम अवस्था में निवास करते हैं। 
विद्वानों का एक तबका "लोक' को अंग्रेजी शब्द "फोक' का पर्याय मानता है। रामनरेश त्रिपाठी, देवेंद्र सत्यार्थी, वासुदेव शरण अग्रवाल आदि ने लोक का "ग्राम्य' अर्थ ही ग्रहण किया है। मोती चंद ने "फोक' के लिए जन शब्द का इस्तेमाल किया है। लोक को "फोक' का पर्याय मानने से इन्कार करते हुए विद्यानिवास मिश्र ने कहा है कि लोक "फोक' नहीं है, भले उसके पर्याय के रूप में आलोचना और चर्चाओं में प्रयुक्त हो रहा है। फोक की अवधारणा पश्चिम में इस प्रकार है कि जो पीछे छूट गया है, जो गंवारू है, जो अनपढ़ लोगों की वाचिक परंपरा के रूप में स्वीकृत है, वह फोक है। एक तो लोक मनुष्य समुदाय तक सीमित नहीं है, यह एक व्यापक शब्द है। दूसरे लोक व्यतीत नहीं है, प्रति क्षण उपस्थित है, वर्तमान है। लोक निर्जीव नहीं, सजीव है। फोक प्रमाण के रूप में स्वीकृत नहीं होता है, जबकि लोक प्रमाण के रूप में भी स्वीकृत है। लोक शास्त्र की तरह ही मान्य है। इसलिए कहा जाता है, "यथालोके।' फोक की तुलना में लोक की अर्थ व्याप्ति कहीं ज्यादा है।
      यही कारण है, रामचंद्र शुक्ल मनुष्य को लोकबद्ध प्राणी मानते हुए कहते हैं, ""लोक की पीड़ा बाधा, अन्याय, अत्याचार के बीच दबी हुई आनंद ज्योति भीषण शक्ति में परिणत होकर अपना मार्ग निकालती है और फिर लोकमंगल और लोकरंजन के रूप में अपना प्रकाश करती है।'' इधर लोक पर संचार क्रांति, बाजार अर्थव्यवस्था और फिल्मों का बड़ा असर पड़ा है, जो उसकी चेतना पर छा गया है और उसकी पीड़ा मार्ग नहीं निकाल पा रही है।
हजारी प्रसाद द्विवेदी लोक पर उसी तरह जोर देते हैं जिस तरह आचार्य शुक्ल ने दिया। वह कहते हैं ""लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है; बल्कि नगरों और गांवों में फैली हुई समूची जनता है जिसके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं हैं। ये लोग नगर के परिष्कृत रूचि-संपन्न समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा सरल और आकृत्रिय जीवन के अभ्यस्त होते हैं और परिष्कृत रूचि संपन्न समझे जाने वाले लोगों की समूची विलासिता और सुकुमारता को जिलाए रखने के लिए जो भी वस्तुएं आवश्यक होती हैं, उत्पन्न करते हैं।'' द्विवेदी जी का लोक किसान और शहरी श्रमजीवी है। रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी ने शास्त्र की जगह लोक को महत्ता दी और लोक का एक व्यापक अर्थ प्रस्तुत किया। आचार्य शुक्ल और द्विवेदी जी के बाद रामविलास शर्मा ने "लोकजागरण' का विशेष उल्लेख किया और लोक को विद्रोही के रूप में देखा।


     उपर्युक्त व्याख्याओं को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि भौतिक संपदा और शास्त्र ज्ञान से परिपूर्ण लोगों के प्रभाव से बाहर रहते हुए अपनी परंपरागत स्थिति में जो जीता है और अनुभव की रोशनी में अपना स्वतंत्र ज्ञान रखता है, वह लोक है। वौदिक साहित्य, रामायण और महाभारत में ही नहीं बौद्ध धाराओं, भक्ति आंदोलनों और नवजागरण की अंतर्धाराओं में भी लोकजीवन की आशाओं और आकांक्षाओं को पढ़ा जा सकता है। इस परिधि में आम किसान, कारीगर, श्रमजीवी, छोटे दुकानदार और छोटे व्यवसायी आते हैं, जो करोड़ों की संख्या में होते हैं। यह प्राचीन अवशेष नहीं, बल्कि अनुभव से परिमार्जित होनेवाला नित सक्रिय ज्ञान है। यह संभव है कि प्राचीन शास्त्रज्ञ पंडितों की तरह आधुनिक व्यक्ति अपनी स्थापित क्षमता के दंभ में लोक को, उनकी समझ को महत्व न देते हों और उसे पिछड़ा मानते हों पर राष्ट्र, लोकतंत्र, आधुनिकता और प्रगतिशीलता के निर्माण में लोक वस्तुत: सबसे बड़ा रुाोत है। लोक का हजारों साल से अपना खोजा सत्य रहा है, इसका सैकड़ों विशिष्टताओं के साथ अपना ज्ञान और आचरण रहा है, इसका अत्याचारी सत्ताओं से लंबा बहुविध संघर्ष रहा है और निश्चय ही अपनी स्वतंत्र आकांक्षाएँ रही हैं इन चीजों का हजारों साल का लुका छिपा इतिहास है।




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