शिव
शिव
त्रिमूर्ति में प्रमुख स्थान रखते हैं- ब्राहृा, विष्णु और शिव। माना जाता है कि इनका पूर्वरूप रुद्र है, जो संहार का देवता है। इनका एक रूप
"हर' है, जिसे
‘महाकाल' कहा गया है। ये ‘त्रिनेत्र' और ‘मृत्युंजय' भी हैं। इनका धनुष है पिनाक, इसलिए
‘पिनाकी' भी कहा जाता है। शिव मुख्यत: त्रिशूल
धारण करते हैं। त्रिपुर ध्वंस के समय उन्होंने देवताओं का आधा तेज हर लिया था और
उनका बल सभी देवताओं से अधिक हो गया था। इसलिए वह महादेव के नाम से विख्यात हुए।
वेदों में महादेव या शिव का कोई उल्लेख नहीं है, पर वहाँ रुद्र है। माना जाता है कि रुद्र का ही सौम्य, शांत और कल्याणकारी रूप शिव है। (देखें
रुद्र)। शिव अन्य देवताओं से भिन्न दिखते हैं, वह
वस्त्राभूषणों और राजसी ठाटबाट से अलग थे। उनका स्वरूप सीधे और भोले मनुष्य का है, जिसकी पत्नी पार्वती है और दो पुत्र
गणेश और कार्तिकेय हैं। किसी अन्य देवता का परिवार नहीं है, शिव को छोड़कर। कृषि-सभ्यता से उनके
जुड़े होने का लक्षण उनका वाहन बैल है, जो
नंदी के रूप में विख्यात हुआ। शिव कलाओं के स्रोत दिखते हैं अपने नटराज रूप में। नटराज
के एक हाथ में अग्नि है, जो वैदिक चिह्न है। शिव गैर-वैदिक और
वैदिक सामाजिक धाराओं की संधि के रूप में सामने आते हैं और एक अनोखे जमीनी देवता
लगते हैं।
उपनिषद
में अनादि और अनंत परमेश्वर या ब्राहृ की धारणा है। केनोपनिषद में शिव ही साधु वेश
में हाथ पर तिनका लेकर इंद्र, वायु
और अग्नि की शक्ति परीक्षा लेते हैं और वैदिक देवता परीक्षा में असफल होते हैं। यह
संदेश निकलता है कि वैदिक देवता लोक विश्वास के अंग नहीं रह गए। अब शिवस्वरूप
ब्राहृ ही सर्वोपरि है। केनोपनिषद से भी पहले श्वेताश्वर उपनिषद में सृष्टि के
संचालक ईश्वर के रूप में मानवीय रंग-रूप वाले शिव का स्पष्ट उल्लेख है। बताया गया
है कि इनका ज्ञान हो जाने से ब्राहृ ज्ञान हो जाता है। श्वेताश्वर उपनिषद अति
प्राचीन है। इसलिए शंकराचार्य और रामानुजाचार्य ने इसकी बार-बार चर्चा की है।
नादनारों द्वारा भक्ति आंदोलन शिव को केंद्र में रखकर विकसित किया गया, हालांकि उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन मुख्यत:
वैष्णव आश्रय में चला गया। एक विद्यापति कवि हैं, जिनकी भक्ति के केंद्र में शिव हैं।
उल्लेखनीय
है कि देवताओं में सिर्फ शिव हैं, जो
तपस्या करते हैं। उनकी निवासभूमि कैलास है। वह देह पर भस्म धारण करते हैं और सर्प
ही उनके अलंकार हैं। उनके जटाजूट में अपूर्व शक्ति और सौंदर्य है। कल्पना की गई कि
गंगावतरण के समय उन्होंने गंगा नदी को जटाजूट में बाँध लिया। वहाँ शीतल चंद्रमा
शोभायमान है। कुल मिलाकर शिव का बिंब उन भौतिक वस्तुओं से बना है, जिनसे मनुष्य का सभ्यता के आदि काल से
संपर्क रहा है। उनके बिंब में उनके दो ही हाथ हैं। वह एक भौतिक नरदेह हैं-- एक
सीधे और भोले पारिवारिक मनुष्य जैसे। उनसे भूत-पिशाचों के गण, मादक वस्तुओं के पान, क्रोधी स्वभाव और संहारकर्ता की छवियां
भी जुड़ी हैं। वह कामदेव को भस्म कर देते हैं, पर
बाद में रति की प्रार्थना पर उसे अनंग रूप में अमर भी करते हैं। वह दक्ष प्रजापति
के यज्ञ का ध्वंस करते हैं,
क्योंकि उनकी पत्नी सती ने अपने पिता
के घर शिव का अपमान देखकर आत्मदाह कर लिया था। महाभारत में वर्णित दक्ष यज्ञ के
ध्वंस, त्रिपुर नगरों को जलाकर देवताओं के
तेजहरण जैसी घटनाएं इसका संकेत हैं कि शिव ऊँचे लोगों से बहिष्कार झेलने के बावजूद
लोक आस्था में स्वीकृति अर्जित करते गए और महादेव बने। शिव के नाम, रूप और गुणों के प्रति श्रद्धा भाव
वैदिक काल के पहले से प्राप्त होता है। यह भी ज्ञात होता है कि शिव के देवरूप का
निर्माण सभ्यता के मिश्रण से हुआ है।
ऋग्वेद
में दो जगहों पर अनार्य लोगों द्वारा शिश्न देवता की उपासना का जिक्र है। इसे शिव
से जोड़ा गया है। शिवलिंग की उपासना का जिक्र सबसे पहले श्वेताश्वर उपनिषद में है।
इसमें ‘ईशान
रुद्र' को सृष्टि की सभी योनियों का अधिपति कह
कर वस्तुत: सभी प्राणियों के जन्म या सृष्टि की भौतिक स्थिति की वंदना है। महाभारत
की उपमन्यु की कथा में शिवलिंगोपसना का उल्लेख है। इसकी पौराणिक व्याख्या यह है कि
पंचसिर ब्राहृा से अपमानित होने पर उनका एक सिर काट लेने से शिव पर ब्राहृ हत्या
का पाप लगा। शिव की उपासना न हो, इसके
लिए उनके विरोध में कई कथाएं बनीं। दूसरी तरफ, शिव
के अवतारों की कल्पना की गई। पुराणों में कहीं उनके चार, कहीं अट्ठाइस और कहीं सौ अवतारों का
जिक्र है, पर शिव नरदेह या अवतार रूप में कभी
पूजे नहीं गए। ब्राहृ हत्या का पाप लगने के बाद शिव की स्वीकृति के सहज पथ
निकले। शिव की पूजा सृष्टि के चिह्न
योनि-लिंग रूप में होने लगी। संहार के देवता का सृष्टि के देवता के रूप में अनोखा
रूपांतरण हुआ। ये ब्राहृा से लेकर भूत-पिशाच तक सभी के द्वारा पूजित हुए।
महाभारत
में शिव घोरा और शिवा दो तरह की शिव मूर्तियों का संकेत है। घोरा अग्नि रूप है और
शिवा परम गुह्र आध्यात्मिक स्वरूप महेश्वर है। उल्लेखनीय है कि एक साधारण बेलपत्र
चढ़ाने से भी शिव प्रसन्न हो जाते हैं। वह सर्वसुलभ हैं, यह प्रचार तेजी से हुआ। काले-चिकने-गोल
पत्थर में भी शिव सुलभ हैं। वह आशुतोष, बम-भोलेनाथ
और औघड़ के रूप में भी देखे गए। उनकी उपासना की मुख्य विधि है उन पर जल चढ़ाना। शिव
को खास कर सावन में जल में निमग्न करना कृषि से संबंधित जल का रिचुअल है। यह जल के
वैदिक देवता का विस्तार है। शिव को छोड़ कर किसी अन्य देवता पर जल नहीं चढ़ाते।
रामायण
और महाभारत में ब्राहृा, विष्णु और शिव के बीच श्रेष्ठता के प्रश्न
पर रस्साकशी के कई संकेत हैं, पर
इनके बीच विरोध का समाहार भी होता है। उभर कर यही आता है कि ये तीनों देवता अंतत:
एक ही हैं। पौराणिक काल में अतिरंजित घटनाओं की कल्पना और महात्म्य प्रदर्शन इतना
बढ़ गया कि हर पुराण में किसी एक को श्रेष्ठ और बाकी को उसके सामने बौना दिखाने की
होड़ मच गई। इसके साथ अनगिनत संप्रदाय बने, संघर्ष
ठने और धार्मिक समाज विभाजित होता गया। शिव की सर्वश्रेष्ठता प्रदर्शित करने वाला
पुराण है शिव पुराण। शिव की उपासना से जुड़ी है शक्ति अथवा देवी की आराधना। शिव
ज्ञान और पार्वती शक्ति की प्रतीक मानी गई। शिव से यदि हस्व ‘इ' हट
जाए, तो यह शव बन जाता है। कालिदास ने
"रघुवंश' के मंगलाचरण में शिव और शक्ति के संबंध
को वाणी और अर्थ के संबंध के रूप में देखा।
शिव
कितने लोकप्रिय देवता हैं,
यह उनकी विस्तृत उपासना भूमि से जाना
जा सकता है। अमरनाथ से लेकर रामेश्वरम और सोमनाथ से लेकर काशी-वैद्यनाथ धाम और
गंगासागर तक वे पूजित हैं। शंकराचार्य ने चार कोनों में अपने चार पीठ बनाए थे।
कैलास-मानसरोवर से उन्हीं की वजह से भारत का गहरा सांस्कृतिक संबंध है।
दार्शनिक स्तर पर शैवों ने जो चिंतन किया, उसका
असर वज्रयान, योग और तंत्र साधनाओं पर पड़ा। शैव और
बौद्ध परंपराओं के बीच समन्वय की घटनाएं हैं। दक्षिण के शैव कवियों की तरह उत्तर
भारत में शैव भक्ति साहित्य विपुल मात्रा में नहीं है। फिर भी शैव भक्ति, दर्शन और योग साधना का हिंदी कवियों पर असर
देखा जा सकता है।
मैथिल
कोकिल विद्यापति शिव भक्त थे। उन्हें शिव के अर्धनारीश्वर स्वरूप ने खास तौर से
आकर्षित किया था, ‘जयशंकर जय त्रिपुरारि, जय अध पुरुष जयति अधनारि/आध धवल तनु
आधा गोरी, आध सहज कुच आध कटोरा।'' इसमें भक्ति और शृंगार के अद्भुत मेल के साथ पुरुष समान
स्त्री की प्रतिष्ठा का जयगान है। शैव-वैष्णव एकता का प्रतिपादन करते हुए तुलसी
राम के मुख से कहलाते हैं, शिव का द्रोही कभी मेरा सच्चा दास नहीं हो सकता। वह ‘पार्वती मंगल' लिखते हैं, यद्यपि इसकी भावभूमि कालिदास के ‘कुमार संभव' से भिन्न है। तुलसी विनय पत्रिका में
कहते है, "दानी संकर सम नाहीं।' सूफी कवि जायसी के ‘पदमावत' में रत्नसेन शिव का दर्शन करते हैं, ‘ततखन पहुँचे आइ महेसू, बाहन
बैल, कुष्टि कर भेसु।' संत साहित्य में "अजपाजाप', ‘निरगुन' और ‘योग' शैव परंपराओं से आई चीजें हैं।
विद्यापति के बाद किसी कवि ने शिव और शैव दर्शन को
अपने काव्य में प्रमुखता से जगह दी तो वह जयशंकर प्रसाद हैं, “नील गरल से भरा हुआ यह चंद्र कपाल लिए हो/इन्हीं
निमीलित ताराओं में कितनी शांति पिये हो।'' (कामायनी)।
समुद्र मंथन में जहर निकला। इसका खुशी-खुशी पान कर शिव नीलकंठ कहलाए। दुष्यंत
कुमार ने दक्ष यज्ञ ध्वंस के प्रसंग में काव्य नाटक "एक कंठ विषपायी' की रचना की, "हर
परंपरा के मरने का विष मिला मुझे/हर सूत्रपात का श्रेय ले गए और लोग।'' आधुनिक कवियों के लिए शिव वस्तुत: भक्ति की जगह लोककल्याणकारी
सौंदर्यबोध के स्रोत रहे हैं।आपकी टिप्पणी ?
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धन्यवाद