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Friday, January 30, 2015



प्रविष्टि-3
अकहानी
    
       हिंदी कहानी के विकास में नई कहानी के बाद अकहानी की चर्चा होने लगी। सत्तर के दशक में जिन कारणों से नई कविता अकविता में परिणत हो गई, उन्हीं कारणों से नई कहानी अकहानी में तब्दील हो गई। अस्तित्ववाद के प्रभाव की पूर्णता अकविता और अकहानी में ही लक्षित हुई। इस दौर में कहानी से प्रतिकहानी, फिर अकहानी अस्तित्व में आई। परंपरागत मूल्यों और आदर्शों का ऐसा विखंडन पहले नहीं हुआ था। अलगाव, संत्रास, अकेलापन, मृत्युबोध और पराएपन का तीव्र अहसास इस दौर की कहानियों में प्रमुख रूप से है। यह सिद्धांत में एक वैश्विक संदर्भ को समेटता है। 
      1913 ई. में फ्रेंज काफ्का ने कहा था, "मेरे लिए सबसे अधिक विकट सत्य यही है कि मैं एक काल कोठरी में बंद दीवारों से अपना सिर टकराता हूँ जिसमें न दरवाजे हैं, न खिड़कियाँ।'' अकहानी का नायक अकेला चक्रव्यूह में घिरा है। उसके हाथ में रथ का टूटा पहिया भी नहीं है। वह बाहर निकलने की कोई राह नहीं देखता, कहीं भी विकल्प का कोई संकेत नहीं है। उसे अपनी बौद्धिकता निष्क्रिय लगती है। सार्त्र की दीवार' कहानी में अंदर और बाहर की दुनिया को एक जेल के रूप में देखा गया है। सत्ता प्रतिष्ठान के विरुद्ध पूरी दुनिया में एक जबर्दस्त गुस्सा छाया हुआ था। हर स्थापित ताकत ही प्रतिष्ठान है। इसका लक्ष्य मनुष्य की जिज्ञासा और स्वाधीन अभिव्यक्ति को अवसर  देना नहीं बल्कि मिटाना होता है। इसलिए सत्ता-प्रतिष्ठान की विरोधिता जरूरी हो गई और इसके लिए युवा पीढ़ी उग्र रूप से सामने आई। अकहानी' का नायक अंतर्वृत्तियों के आंदोलन की ऐहिक उपलब्धि है। उसने संबंधों के सुविधावादी समीकरण को बेनकाब किया है और आर्थिक गुलामी को वास्तविक गुलामी के रूप में चित्रित किया है। 
      उदाहरण के लिए दूधनाथ सिंह की रीछ' कहानी ली जा सकती है। इसमें एक पति अपने प्रथम प्रेम का आख्यान सहवास के समय पत्नी से शेयर करके उसकी स्मृति से मुक्त होना चाहता है, लेकिन पत्नी उसे ऐसा नहीं करने देती। वह पति को टीज करती है, उसे परेशान करने लगती है। वह खोद-खोदकर पूछती है, मानो प्राचीनतम टूटी-फूटी धड़वाली, बदरूप मूर्तियों और छिपे शिलालेख बाहर निकलना चाहती हो। नायक चिड़चिड़ाकर उठता और सब कुछ जल्दी खत्म कर देता, खत्म होने के बाद उसे लगता, वह एक मरी हुई चीज के पास लेटा है।' पति विकल्प के अभाव में हर बार रीछ' बनने को अभिशप्त है। पूँजीवादी व्यवस्था ने प्रेम-व्यापार को पाशव-वृत्ति में बदल दिया है। विवाहोपरांत पति रीछ' होकर रह जाता है, ‘हजरतगंज में कोई औरत देखी, पीछे-पीछे घूमते हुए दो-चार चक्कर लगाए। लौटकर दो-चार कपड़े लिए और स्टेशन भागने लगे... ग्यारह बजे उतरे और आते ही नोचना शुरू।' यह पत्नी का हाल है। 
      ज्ञानरंजन की कहानी संबंध' का नैरेटर कहता है, ‘आप यह भी देखिए कि समय मानवीय संबंधों के सिलसिले में किस तरह काम करता है। एक लंबे समय तक जो मेरे लिए केवल माँथी, अब कभी-कभी ही माँ लगती है या माँ का भ्रम! बल्कि कभी-कभी अब ऐसा हो जाता है, न चाहते हुए भी जबड़े दब गए हैं और अंदर से एक-दो शब्द हिचकिचाती हुई खामोशी के साथ निकल जाते है', ‘यू वूमैन! (ध्वनि : गेट आउट फ्राम माई लाइफ)।
      ज्ञानरंजन की फेन्स के इधर-उधर', ‘पिता', ‘घंटा' आदि कहानियों में अकहानी की आधार-सामग्री है। उनकी बहिर्गमन' कहानी में पत्नी हॉस्टल में रहती है और पति लंदन में रातभर इधर-उधर भटकता है। विफल होकर पत्नी के पास जाता है, तो वह उसे अंदर नहीं आने देती। सोमदत्त के कोट पर बर्फ थी। वह अंदर जाता, तो कमरा ठंडा और गंदा हो जाता। पत्नी दरवाजा खोलती है तो उसके हाथ में एक पुर्जा देती है, कहती है—इसमें रूबी का पता है। वैसे, तुम उसके पास पहले भी जा चुके हो। अगर तुम्हें तुरंत टैक्सी मिल सके तो बीस मिनट में पहुँच सकते हो। वह तुम्हें थका देगी और कृतज्ञ, लेकिन साथ में रम या ब्रांडी जरूर रखो। उफ यह ठंड और द्वार बंद कर लिया। (सपना नहीं)
      अकहानी के लेखकों में ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, रमेश बक्षी, काशीनाथ सिंह, रवींद्र कालिया, विजय मोहन सिंह, प्रयाग शुक्ल, रामनारायण शुक्ल, महेंद्र भल्ला, पानू खोलिया और सुधा अरोड़ा प्रमुख हैं। ये अंतर्वस्तु का ध्वंस करके शिल्प सँवारते हैं। अंतर्वस्तु मानो मूल्यों का मलबा हो। इसलिए यह कहना कि अकहानी ने अपने कथ्य से कम, शिल्प से अधिक चकित किया, अन्यथा न होगा। अकहानी ने कहानी लिखने के प्रचलित ढंग को तोड़ दिया और विरोध करने के प्रचलित ढंग को भी। अकहानी की भाषा समकालीन कविता की भाषा में होड़ लेती है। रवींद्र कालिया की त्रास', विजय मोहन सिंह की कुछ महीने' और विनोद कुमार शुक्ल की अकहानी' में संरचना की दीवार जर्जर है। यह भी लक्षित किया जा सकता है कि कहानी के खास प्रचलित शिल्प को तोड़ते हुए उपर्युक्त में से कुछ कहानीकारों ने अगले दौर में कहानी के नए रूप गढ़े--विनिर्माण के बाद निर्माण चला। 
      अकहानी आउटसाइडर का वृत्तांत है, ऊलजलूल का भी। यह अवांगार्द को पीछे छोड़ देने में समर्थ हुई है। इसके नायक मोहमुक्त हैं। उनका जीवन निरावरण होने से ऐब्सर्ड भी लग सकता है। वे नई कहानी के लघुमानव से भी गए बीते हैं। अकहानी का परिवेश शहरी है। यंत्र की सभ्यता ने मनोग्रंथियों में इजाफा किया है। पाशव-वृत्ति बढ़ी है। निराशा बढ़ी है, कटुता भी। स्वप्न कोई नहीं। कहीं है, तो दु:स्वप्न सरीखा। अकहानी का फॉर्म ऐंटी फॉर्म लग सकता है। उसमें कथावस्तु और चरित का निषेध है। मुख्यत: व्यवस्था और व्यक्ति के बीच टकराहट है। ऐसी कहानियों में चमक भरती है भाषा। मान्यता है, सब निरर्थक है, रचना-प्रक्रिया भी। नथिंग इज मोर रियल दैन नथिंग'। इसलिए इस दौर के साहित्य में आम तौर पर भाषा के अभिजात्यवादी रूप का ही विरोध नहीं है, कई लेखक अपने को व्यावसायिक साहित्यिक पत्रिकाओं, बड़े प्रतिष्ठानों, अकाडेमी, रेडियो एवं अन्य प्रचार माध्यमों से अपने को अलग कर लेते हैं। क्षुब्ध और खिन्न मनोदशा में वे अपनी लघु पत्रिकाएँ निकालते हैं या अकेले ही लिखते जाते हैं। सन 60 के बाद का यह एक अनोखा साहित्यिक परिदृश्य था। 
      अकहानी ने अस्तित्ववाद को भी कई मामलों में छोड़ा है। अस्तित्ववाद में व्यक्ति' और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' एक मूल्य है। अकहानी का बाहर से पिटा हुआ नायक अंदर प्रिया की गोद में छिपकर रो भी नहीं सकता। इसलिए उसके यौन प्रसंगों में लालित्य की जगह संत्रास ही प्राथमिक है। प्रोटेस्ट के लिए संवेदना के सबसे कोमल तंतु पर प्रहार करना अकहानी के लेखकों की प्रवृत्ति में शामिल है। यह अलग बात है कि "व्यवस्था के उग्र विरोध' का मामला कुछ समय बाद व्यवस्था में घुसकर व्यवस्था के विरोध' पर आकर खड़ा हो गया। 
      संक्षेप में अकहानी' के अंतर्विरोध अधिक हैं, किंतु उसकी भाषा अप्रतिम है। उसके लेखकों में कई ऐसे हैं, जो बेहतर कहानियां लिख सकते थे। कई अकहानीकार ऐसे हैं, जो ज्यादा समय तक निरंतर लिख नहीं पाए और उन्होंने कहीं व्यवस्थित हो जाने के बाद साहित्य-कर्म छोड़ दिया। फिर भी कविता न लिखकर जिन्होंने कहानियाँ लिखीं, उनका शिल्प चमकदार होता गया, इसमें संदेह नहीं।

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