प्रविष्टि-2
अस्तित्ववाद
अस्तित्ववाद दुनिया में
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लोकप्रिय हुआ, पर यह चिंतन औद्योगिक क्रांति की पृष्ठभूमि में 19
वीं सदी की यांत्रिक जीवन दशाओं के बीच ही सामने आ चुका था। यह एक
दर्शन भर न होकर बुद्धिवाद और अनुभववाद की परंपरा में जबर्दस्त बौद्धिक आंदोलन भी
रहा है। इसने दुनिया के साहित्य, कलाओं और मानव जीवन को
व्यापक रूप से प्रभावित किया। औद्योगिक समाज में मनुष्य का जीवन और उसकी आतंरिक
अनुभूति हाशिए पर जा रही थी। बड़े औद्योगिक संगठन ही नहीं इतिहास, संस्कृति और विज्ञान---- इन सभी के द्वारा मनुष्य की प्रामाणिक अंत:चेतना ‘अंत:अंधकार' कूपी में डाली जा रही थी। अस्तित्ववाद
इसके विरोध में उठ खड़ा हुआ। यूरोपीय समाज सामंतवाद से निकल कर जब एक आक्रामक
पूंजीवाद के युग में जा रहा था, अस्तित्ववादियों ने मानवीय
सत्ता और अस्तित्व की प्रधानता का उद्घोष किया। उन्होंने व्यक्ति की स्वतंत्रता और
मानवीय अस्तित्व की धारणाएं दीं। एक दर्शन के रूप में अस्तित्ववाद तब उत्कर्ष पर
पहुँच गया, जब विश्वयुद्धों के रूप में औद्योगीकृत सभ्यता का
पतनशील रूप बेनकाब हो जाता है।
चिंतन स्रोत : अस्तित्ववादी चिंतन-धारा के स्रोतों की तलाश
करते हुए कुछ विद्वान ग्रीको-रोमन दार्शनिकों की ओर देखते हैं। प्लेटो और अरस्तू
की कुछ धारणाएं ‘मनुष्य की चेतना के गठन' पर प्रकाश डालती हैं, लेकिन वे ईश्वर को ‘मूल विचार' के लिए केंद्र में ले आती हैं। ये
दार्शनिक ‘मनुष्य को महत्व देने की दृष्टि' के कारण नव-प्लेटोवादी और नव-अरस्तूवादी रूपों में आधुनिक समय तक अनेक अस्तित्ववादी
चिंताओं के प्रेरणास्रोत रहे हैं।
ग्रीको-रोमन दार्शनिकों के बाद, सवार्धिक महत्व रेने
देकार्त (1596-1650) का है। उसने ‘अस्तित्व' शब्द का विशेष अर्थ में प्रयोग किया,
‘मैं सोचता हूँ, इसलिए मेरा अस्तित्व है'। इसमें संदेह नहीं कि 19 वीं सदी के पहले विधिवत
अस्तित्ववाद दार्शनिक सोरेन कीर्केगार्द (1813 - 1855) हैं,
जो अस्तित्ववाद की आस्तिक-धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस धारा
के अन्य मुख्य दार्शनिक हैं - गैब्रिायल मार्सल और पाल टिलच।
भारतीय स्रोत है बौद्ध चिंतनधारा। बौद्ध चिंतन में सर्वास्तिवाद सभी
पदार्थों की ‘अस्ति' की बात है। सभी
पदार्थ यानी जगत, समाज, मनुष्य और उसका
चित्त। इस चिंतन में ‘अस्ति' का प्रमुख
लक्षण है ‘क्षणिकता'। अस्तित्ववाद में ‘क्षण में स्थिति' की पहचान और इसके मुताबिक ‘वरण की स्वतंत्रता' मुख्य बातें हैं। अस्तित्ववाद के
दो सबसे बड़े दार्शनिकों हीडेगर और सात्र्र ने बौद्ध चिंतन से परिचित होना स्वीकार
किया है, हालांकि "प्रभावित होने' की बात को नकारा है।
परिभाषा : ज्यां पाल सार्त्र की धारणा ‘अस्तित्व सार का पूर्ववर्ती
है' अस्तित्ववादी दर्शन की व्याख्या करनेवाली बुनियादी धारणा
है। सार्त्र अपने प्रसिद्ध व्याख्यान ‘अस्तित्ववाद मानववाद
है' (1946) में कहते हैं कि प्लेटो एवं अरस्तू से लेकर हीगेल
तक मुख्यधारा के दार्शनिक मानते रहे हैं कि सृष्टि के भीतर मौजूद परम ज्ञान,
जिसे वे ‘आयडिया' कहते
हैं, सृष्टि की रचना का मूल कारण है। यानी सृष्टि का
अस्तित्व बाद में आता है, पहले सृष्टिकर्ता के भीतर उसका
तत्वज्ञान रहता है। ये दार्शनिक तत्वज्ञान या परमअर्थ को पहले और अस्तित्व को बाद
में प्रकट होनेवाली वस्तु मानते हैं, जबकि अस्तित्ववादी इस
ज्ञान क्रम को उलट देते हैं। वे कहते हैं कि जगत का अस्तित्व, मनुष्य के संदर्भ में पहला है; फिर इस अस्तित्व का
ज्ञान हमारी चेतना का रूप लेता है। यानी हम ‘होते' पहले हैं, फिर ‘अपने' होने के असल अर्थ को पाते हैं। यहां ‘होने' के अर्थ को समझना जरूरी है। ‘होना' दो तरह का होता है -- एक ‘अस्तित्व में होना'
है। दूसरा, ‘होते हुए होना' है। एक हम उसी तरह होते हैं, जैसे शेष सारे पदार्थ
हैं और एक हम अपने होने के ‘बोध' के
साथ इस ‘होने के अर्थ' को खोजते और
पाते हुए होते हैं। अस्तित्ववाद में मनुष्य यही सफर तय करता है। ज्यां पाल सार्त्र
की नजर में अस्तित्ववाद मनुष्य-केंद्रित, जीवन-अनुभव मूलक,
आत्मज्ञानपरक कर्म-सिद्धांत है। जीवन, अनुभव
और कर्म को अहमियत देते हुए अस्तित्ववाद को परिभाषित करनेवालों में फ्रेडरिक कैपलर
अग्रणी हैं। फ्रेडरिक क्रिश्चियन सिवर्न की निगाह में अस्तित्ववाद को समझना हो तो
ज्ञान और कर्म के मुकाबले ‘जीवन' को
केंद्र में रखना होगा। स्पष्ट है कि अस्तित्ववाद के केंद्र या बुनियाद की स्थिति
को लेकर सभी विद्वान एक मत नहीं हैं। सार्त्र का जोर ‘कर्म'
पर है, जहां वे कर्म में चुनाव के माध्यम से
स्वतंत्रता एवं परम अर्थ तक पहुंचते हैं। परन्तु उनके गुरु समान मार्टिन हीडेगर,
जिनसे बाद में सार्त्र का मतभेद हो गया था, अपने
अस्तित्ववादी दर्शन के केंद्र में अस्तित्व के ‘सारभूत ज्ञान’
को ज्यादा अहमियत देते हैं। स्टीवन क्रोवेल जैसे विद्वानों का भी एक
दल है, जो अस्तित्ववाद की व्याख्या ‘निषेधमूलक'
रूप में करता है। यह अस्तित्ववाद को आदर्शवाद, भौतिकवाद, द्वंद्वात्मकता, विज्ञानवाद,
प्रत्यक्षवाद (पॉजिटिविज्म), बुद्धिवाद
(रैशनेलिज्म) आदि प्रचलित चिंतनधाराओं को खारिज करनेवाले दर्शन के रूप में
देखता है।
मुख्य धारणाएं 1. ‘व्यक्ति' (इंडिविजुअल) वह है, जो अस्तित्व में है, पर वह ‘वास्तविक मनुष्य’ तब
बनता है, जब वह अपने ‘होने’ (बीइंग) का ‘अर्थ’ खोज लेता है।
उसका ‘अर्थपूर्ण होना’ रेने देकार्त के
‘विचारवान मनुष्य’ होने से अलग है। ‘विचार' मन से ताल्लुक रखते हैं, ये मन और देह में विभेद पैदा करते हैं। सार्त्र विचार को ‘समग्रता' में देखते हैं। मनुष्य पहले अपने ‘होने के बोध’ तक आता है, फिर
इस बोध के भीतर से वह ‘मूल्यों एवं परम अर्थ' के रूप में अपने अस्तित्व के सार को पाता है।
2. ‘व्यक्ति का होना' उसका ‘तथ्यपरक'
रूप में होना है। व्यक्ति जिन हालात में जन्म लेता है, उसकी ‘स्थितियां' उसकी ‘तथ्य-भूमियां' है। व्यक्ति को अपने मनुष्य के रूप
में ‘होने' (बीइंग) का प्रथम बोध ‘तथ्यपरक' रूप में होता है, जिसे
हम ‘दूसरों के अपने बारे में दिए गए वक्तव्यों' के रूप में पाते हैं।
3. व्यक्ति जब अपने होने की कसौटियों के रूप में ‘दूसरों'
से ताल्लुक रखने वाले तथ्यों का विश्लेषण करता है और यह बोध हासिल
करता है कि वे तथ्य ‘अतीत' से संबंध
रखते हैं, तब वह अपने होने की ‘वर्तमान
स्थिति’ के यथार्थ को जानने लगता है। वह अपने ‘होने' का प्रामाणिक बोध पाना चाहता है। प्रामाणिकता
का मतलब है- अतीत से जुड़ी चीजों की प्रामाणिकता के बारे में संदेह चाहे वे चीजें
परंपरा, संस्कृति, धर्म या सत्ता
संस्थाओं द्वारा प्रमाणित क्यों न की जा रही हों। अस्तित्ववाद के अनुसार व्यक्ति
को अपने होने की प्रामाणिकता खुद खोजनी पड़ती है। उसे वर्तमान के हालात से, क्षण की स्थितियों के यथार्थ से प्रामाणिकता पानी होती है।
4. प्रामाणिक मनुष्य वह है जो अतीत की परंपराओं और दूसरों की मान्यताओं से
प्रभावित हुए बगैर अपनी नियति खुद रचता है। उसकी वास्तविक नियति उसे तब मिलती है,
जब वह ‘वर्तमान में स्वतंत्र चुनाव' करने के दायित्वबोध से जुड़ता है।
कर्म का चुनाव परंपरा या इतिहास के निष्कर्षों से
मेल खाता हुआ हो या न हो, दोनों
स्थितियों में चुनाव की स्वतंत्रता ही वह मुख्य चीज है, जो
उसे उसके परम अर्थ या सार को खोजने में मदद करती है।
5. अत: जैसा कि अक्सर समझा जाता है, अस्तित्ववादी
अनिवार्य रूप में परंपरा या इतिहास का विरोधी नहीं है। अगर उसका स्वतंत्र चुनाव
परंपरा या इतिहास से मेल खा जाता है, तो वह ऐसा करके परंपरा
एवं इतिहास को ही अपनी नियति बना लेता है। इसी प्रक्रिया में सार्त्र का
अस्तित्ववाद मार्क्सवाद तथा समाजवाद से प्रतिबद्ध होने की हद तक चला जाता है।
मार्टिन हीडेगर पहले जर्मन फासीवाद के पक्ष में नजर आए, फिर
उन्होने समाजवाद की ओर रूख कर लिया।
6. सार्त्र स्पष्ट करते हैं कि व्यक्ति का स्वतंत्र चुनाव उसे अराजकतावादी
(निहिलिस्ट) नहीं बनाता, क्योंकि स्वतंत्र चुनाव, व्यक्ति को किए हर काम के लिए जिम्मेदार बनाता है। उनके अनुसार, ‘जो चुनाव व्यक्ति के लिए बेहतर होता है, वह अंतत:
पूरे समाज के लिए बेहतर होता है।' (अस्तित्ववाद मानववाद है) ।
7. आत्मानुभव को महत्व देने के कारण अस्तित्ववाद ‘अनुभववाद'
(फिनोमिनोलॉजिकल) और तत्वमीमांसा (ओंटोलोजी) से संबद्ध दर्शन है,
पर दायित्वबोध पर जोर देने के कारण उसका एक अपना ‘आंतरिक नैतिकतावाद' है।
8. अस्तित्ववाद विज्ञान की तरह वस्तुनिष्ठता और तर्क (रैशनेलिज्म) पर जोर
देने का विरोध करता है, परंतु वह वस्तुनिष्ठता को आत्मनिष्ठ
तरीके से जरूर खोजता है, क्योंकि हम ‘दूसरों'
से अलहदा होकर भी कहीं न कहीं ‘साझी
आत्मनिष्ठता' में दूसरों जैसे होते हैं, यानी हम दूसरों के जरिए खुद को पाते हैं और खुद को दूसरो की मार्फत
विस्तार देते हैं।
9. ‘आत्म' और ‘साझी आत्मनिष्ठता'
की तलाश में दिक्कत तब पैदा होती है, जब
मनुष्य का स्वतंत्र चुनाव उसे ‘अकेला' करके
छोड़ देता है। यह अकेलापन कई दफा इस ‘निराशा के अंधकार’
तक ले जा सकता है कि दुनिया पर हमारा वश नहीं है, इसलिए हम ‘असुरक्षित' हैं। इसे
‘उम्मीद के टूटने’ (लॉस ऑफ होप) और ‘अस्मिता के खंडित होने’ (लॉस ऑफ आइडेंटिटी) की शक्ल
लेता हुआ भी देखा जा सकता है।
10. ऐसा तब भी हो सकता है, जब मनुष्य का चुनाव परंपरागत
नैतिकताबोध से मेल नहीं खाता। अस्तित्ववादी दृष्टि में ‘न कुछ
अच्छा है न बुरा', अच्छाई या नैतिकता का स्रोत है मनुष्य का
उसका अपना चुनाव और दायित्वबोध। अब व्यक्ति ‘सार्वभौम
नैतिकता' को जन्म देने की जिम्मेदारी खुद अपने कंधे पर पाता
है। इसे सार्त्र ‘मानववादी’ होना कहते
हैं।
इतिहास, प्रमुख चिंतक एवं प्रभावक्षेत्र -
19 वीं सदी के बड़े अस्तित्ववादी चिंतकों में से सोरेन
कीर्केगार्द आस्तिक धारा के प्रतिनिधि थे। उन्होंने महान दार्शनिक हीगेल की यह
कहकर आलोचना की थी कि वह मनुष्य के अस्तित्व को केंद्रीय नहीं मानते थे। इसी सदी
के एक अन्य बड़े चिंतक नीत्शे ने डार्विन के विकासवाद को अस्तित्ववादी व्याख्या
देकर मनुष्य के ‘महामानव' होने की
संभावना को उठाया, पर ईश्वर की जरूरत को खारिज कर दिया। इन
जर्मन चिंतकों के समानांतर रूसी उपन्यासकार दास्तोवस्की ने ईश्वर की गैर-मौजूदगी
में ‘सभी कुछ सही' हो जाने के मुद्दे
को उठाया।
20 वीं सदी में अस्तित्ववादी चिंतनधारा को आगे बढ़ानेवाले मुख्य चिंतक थे-
मिगुअल डी अनामुनोवाई जुगो, गेब्रियल मार्सल, कार्ल यास्पर्स, हसरल, मॉरिस
माले पोंटी और मार्टिन हीडेगर। उल्लेखनीय है कि हसरल और हीडेगर की शिष्य परंपरा
में जब सात्र 1940 के बाद अपने सहयोगियों के साथ अपने काम को
आगे बढ़ाते हैं, तो अस्तित्ववाद एक चिंतनधारा से विधिवत
दार्शनिक व्यवस्था पा जाता है।
सार्त्र के मुख्य सहयोगियों के नाम हैं--- सीमोन दी बउआ, अल्बेर कामू, पाल टिलिच, कौलिन
विल्सन कुछ अन्य चिंतक हैं। मार्टिन बूवर, लेव सा शेस्तोव,
निकोलाई वर्डियेव, फ्रेंज काफ्का और स्टेनल
कूब्रिाक। अस्तित्ववादी धारा को आगे बढ़ाने में साहित्य की भूमिका दार्शनिक चिंतन
से कम नहीं है, जैसे कामू, हरमन हैस और
काफ्का के साहित्य की भूमिका यह बात रेखांकित करने लायक है कि हीडेगर की ‘बीइंग एंड टाईम' और सात्र की ‘बीइंग
एंड नथिंगनेस' जैसी दार्शनिक किताबें अस्तित्ववादी चिंतन में
"क्लासिक' मानी जाती हैं; पर खुद सार्त्र
अपने काम को उपन्यासों और नाटकों की मार्फत भी आगे बढ़ाते हैं। आलोचक-कवि-नाटककार
टी. एस. इलियट पर भी अस्तित्ववाद का प्रभाव माना जाता है। मार्टिन एस्लिन अपनी
आलोचना पुस्तक ‘थियेटर ऑफ द एब्सर्ड' द्वारा
इस चिंतनधारा को आगे ले जाते हैं। नाटककारों में सैमुअल बेके, ज्यां जेने और एडवर्ड एल्बी जैसे बड़े नाम शुमार हैं। ज्यां जेने का
ताल्लुक फिल्मों से भी रहा है। इनके अलावा इंगमार वार्गमान जैसे बड़े फिल्मकार इसी
धारा से संबद्ध रहे हैं। मनोविश्लेषण के क्षेत्र में इस धारा को आगे बढ़ानेवालों
में आटो रैंक का और ‘जेंडर अध्ययन' में
जूडिथ बटलर का नाम उल्लेखनीय है। डेविड कार को समकालीन चिंतकों की उस श्रेणी में
रखा जा सकता है जो अस्तित्ववाद को नव-हीगेलियन चिंतनधारा के रूप में आगे बढ़ा रहे
हैं और पाल रिकर इसे भाषाशास्त्रीय नव-अर्थमीमांसा (नियो हरमेन्युटिक्स) तक ले आने
का प्रयास कर रहे हैं। सात्र से प्रभावित एवं उनके शिष्य फ्रेडरिक जेम्सन इस धारा
को नव-माक्र्सवाद के तहत नया रूप देने का प्रयास करते रहे हैं।
हिंदी में अज्ञेय और निर्मल वर्मा इस चिंतनधारा के प्रतिनिधि माने जा सकते
हैं। इनमें फर्क यह है कि जहां अज्ञेय हीडेगर के ज्ञान-बोध संपन्न मनुष्य के होने
की स्थिति के ज्यादा करीब हैं, वहां निर्मल वर्मा सार्त्र के
कर्मगत चुनाव के द्वन्द्व-दुविधाओं के संसार में ज्यादा गहरे उतरते हैं। अज्ञेय के
साहित्य में अस्तित्ववाद 'सांस्कृतिक आत्मबोध' उपलब्ध
करनेवाले ‘प्रामाणिक मनुष्य' की खोज के
लिए है, जबकि निर्मल वर्मा के साहित्य में यह सभ्यतामूलक
परिप्रेक्ष्य में ‘स्वतंत्रता की संभावनाओं से उपजे
अंतद्र्वंद्व की जमीन के रूप में है। अज्ञेय की तीन कृतियां ‘अपने अपने अजनबी' (उपन्यास), ‘असाध्य
वीणा' (लंबी कविता) और ‘उत्तर
प्रियदर्शी' (नाटक) उनके अस्तित्ववादी दर्शन के तीन भिन्न रूपों
को हमारे सामने रखती हैं। ‘शेखर : एक जीवनी' यह स्पष्ट करता है कि अज्ञेय मनुष्य में ‘स्वतंत्र
चुनाव' की संभावनाओं को ‘व्यक्तित्व'
के विशिष्ट रूप से उपजी वस्तु की तरह देखते हैं।
निर्मल वर्मा के साहित्य में अस्तित्व का संकट आधुनिक परिवेश से जुड़ा है।
यह संकट मनुष्य को सोते से जगा कर, अपने आपको खोजने की जरूरत
से जुड़े चुनाव के लिए खड़ा कर देता है। यहां अपने होने का अर्थ खोजने के सिवाय
मनुष्य के पास कोई विकल्प नहीं बचता। इस तरह अस्तित्व का संकट निर्मल वर्मा के
साहित्य में ‘सभ्यता के बुनियादी संकट’ से उपजता है, जहां मनुष्य को खुद को चुनना पड़ता है,
ताकि वह नष्ट होने से बच सके। चाहे वह ‘डेढ़
इंच ऊपर' का नायक हो या ‘परिंदे'
की नायिका या ‘अंतिम अरण्य' में आखिरी सफर की तैयारी के लिए आत्म की ओर मुड़ा ‘प्रामाणिक
मनुष्य’! इसलिए एक साक्षात्कार में निर्मल वर्मा ने कहा है ‘परंपरा खुद को जानने का रास्ता है, जो संस्कृति से
सभ्यता तक आता है और हमें ऐसी स्थिति में ले आता है जहाँ हम अपने लिए स्वतंत्र
होकर चुनाव कर सकते हैं'।
आपकी टिप्पणी ?
बहुत बढ़िया जानकारी.. आपका बहुत शुक्रिया
ReplyDeleteक्या आप मुझे ज्यां पॉल सात्र के जीवन या उनके लेखन के बारे में कुछ जानकारी दे सकते है क्या ।
बहुत ही अभ्यासपूर्ण जानकारी दी गई है,आप अभिनन्दन के हकदार हैं,परीक्षार्थी इस लेख से जरूर लाभान्वित होंगे।
ReplyDeleteउद्धव महाजन"बिस्मिल" पुणे।
धन्यवाद
ReplyDeleteअस्तित्ववाद पर सारगर्भित लेखन के लिए धन्यवाद। बिइंग और नथिंगनेस को स्पष्ट करना चाहिए। नथिंगनेस क्या है? क्या यह बौद्ध दर्शन का शून्यवाद है?
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