प्रविष्टि-4
उर्दू और हिंदी
उर्दू का जन्म
कैसे हुआ, इस पर कई मत हैं। मोहम्मद हुसैन ‘आजाद' ने ‘आबे हयात' में लिखा है, यह बात तो सभी जानते हैं कि उर्दू भाषा का उद्गम
ब्रज भाषा से हुआ है और ब्रज भाषा खास भारतीय भाषा है। लेकिन यह भारत की आदिकालीन
भाषा नहीं है। (आबे-हयात, पृ.-1) उपर्युक्त
कथन से पूर्ण सहमति नहीं हो सकती। एक बात ध्यान देने योग्य है कि उस समय जो नई
भाषा निर्मित हो रही थी, उसने आदरसूचक क्रियाएं ब्राजभाषा से ली हैं। ‘कीजे’, ‘दीजे’ आदि क्रियाएं ब्रज भाषा की हैं। वरना खड़ी बोली में
‘दो', ‘लो', ‘करो' जैसी भाषा बोली जाती थी। खड़ी बोली से ही उर्दू
भाषा का विकास हुआ है और खड़ी बोली से ही हिंदी का भी विकास हुआ है। दरअसल उस समय
एक व्यापक क्षेत्र में जो नई भाषा बन रही थी, वह
हिंदी कहलाती थी। इतिहासकारों ने लिखा कि मध्यकाल में दो संस्कृतियां आपस में
टकरार्इं। संस्कृतियां आपस में टकराती नहीं, आपस में
एक दूसरे से गले मिलती हैं। उर्दू भाषा के बारे में ‘आबे हयात’ का एक और अंश द्रष्टव्य है, "संस्कृत और फारसी भाषा जो जेन्द अवेस्ता की भाषा थी, (ईरान की पुरानी भाषा) आर्यों के रिश्ते से एक ‘दादा' की संतान हैं। किंतु समय का उलटफेर देखो कि कितने सौ या कितने हजार
वर्ष की बिछड़ी हुई बहनें ऐसी परिस्थिति में एक दूसरे से इस तरह आकर मिलीं कि एक
दूसरे की शक्ल तक पहचान न सकीं।'' उन्नीसवीं शताब्दी में खड़ी बोली हिंदी का आंदोलन शुरू
हुआ तो उत्तर भारतीय समाज दो वर्गों में बंट गया था। एक वर्ग था, जो हिंदी को संस्कृतनिष्ठ बना रहा था। दूसरा वर्ग हिंदी में
अरबी-फारसी के शब्दों को ठूंस रहा था। शिवप्रसाद सितारे हिंद और लक्ष्मण प्रसाद
में यही भाषिक लड़ाई थी। इनके बीच भारतेंदु हरिश्चंद्र ने समन्वय करते हुए बीच का
रास्ता निकाला और कहा कि बोलचाल के शब्द होने चाहिए, चाहे वे
संस्कृत के शब्द हों, चाहे अरबी-फारसी के।
उर्दू भाषा के लिए उस जमाने में एक और शब्द था, जिसका नाम ‘रेख्ता' या ‘रेख्ती' था। मिर्जा गालिब का ‘मीर' के बारे
में एक शेर है :--
रेख्ती के तुम्हीं
उस्ताद नहीं हो गालिब
कहते हैं अगले जमाने में
कोई मीर भी था।
‘रेख्ता' उस
जमाने में पक्के मकान को कहते थे। फारसी के शब्दकोश में ‘रेख्ता' का अर्थ है, ढाली हुई चीज (मुजमुअल लुगात फाख्सी), वस्तुत: चूने के बनी दीवार। ‘रेख्ता' का मतलब यह भी है, ‘टूटी-फूटी भाषा’। एक अन्य अर्थ दिया है, ‘भवन
निर्माण की बिखरी हुई चीजें।' यानी ‘उर्दू' एक ऐसी भाषा है, जो भवन निर्माण के समय बिखरी हुई चीजों की तरह है।
यानी एक कोने में अरबी के शब्द हैं, दूसरे
कोने में फारसी और तुर्की आदि के शब्द। कहीं अवधी और ब्रज के शब्द हैं तो कहीं
संस्कृत के शब्द। इन बिखरे हुए शब्दों से मिलकर जो भाषा बनी, वह ‘उर्दू' कहलाई।
अब थोड़ा ‘उर्दू' शब्द पर विचार किया जाना चाहिए। मुहम्मद मुस्तफा
खा ‘मद्दाह' के शब्दकोश में बताया गया है कि उर्दू तुर्की भाषा का शब्द है। इसका
अर्थ दिया है---सेना, फौजी-पड़ाव, छावनी।
फारसी के शब्द कोश में भी ‘उर्दू' के ये ही अर्थ हैं--- फौज, पड़ाव, फौजी- खेमा आदि। अब सवाल है कि जब यह फौजी खेमा है, फौज है, तो भाषा कैसे हो सकती है? भाषा के रूप में इसका प्रयोग कैसे और क्यों हुआ? दरअसल उर्दू भाषा का जहां जन्म हुआ, उसके
मुख्यत: चार केंद्र थे। पहला-फौजी छावनी, दूसरा-बाजार, तीसरा-दरबार और चौथा-हरम। बाहर से जो लोग आए, वे प्राय: थल मार्ग से आए थे। खासकर उत्तर भारत में आए लोग, जिन्होंने यहां शासन किया। पहाड़ों, नदियों
और गुफाओं को लांघते हुए वे लोग यहां पहुंचे थे। जाहिर है, उनमें से कितने लोग रास्ते में मर गए होंगे। जो लोग यहां तक पहुंचे, उन्होंने देखा कि भारत में कोई एक राजा नहीं है, छोटे-छोटे राज्यों के राजाओं की आपस में बनती नहीं है। उन्होंने यहां
के सैनिकों को लालच देकर अपनी फौज में भर्ती करना शुरू किया। परिणामस्वरूप दो
प्रकार के भाषा-भाषियों में मेलजोल हुआ। इस तरह इन दो वर्गों में संवाद होने से
तीसरी भाषा का विकास होना शुरू हुआ। यानी उर्दू का पहला केंद्र बनी फौजी छावनी।
दूसरा केंद्र बना बाजार। फौजियों ने जहां-जहां छावनी डाली, वहां-वहां बाजार बनता गया। उत्तर भारत के कई शहरों में आज भी ‘उर्दू बाजार' नाम के मुहल्ले हैं। एक मुहल्ला गोरखपुर में ही है। बाजार में
लेन-देन होता था। खरीद-फरोख्त होती थी। ऐसी स्थिति में परस्पर बाचतीत जरूरी थी।
जाहिर है कि अलग-अलग भाषा बोलने वालों ने एक-दूसरे के शब्दों को ग्रहण करना शुरू
किया। जैसे, अरबी जानने वाले ने फल की दुकान में पूछा होगा कि 'नारंज के क्या दाम हैं?' दुकानदार को जब कुछ समझ में नहीं आया होगा, तब उसने संतरे पर ऊंगली रखकर पूछा होगा। इससे दुकानदार को मालूम हो
गया होगा कि ये लोग ‘संतरे' को ‘नारंज' कहते हैं। किसी मिस्र वाले शख्स ने (मिस्र की भाषा भी अरबी है) ‘नारंज' को ‘नारंग' कहा होगा। क्योंकि मिस्र की अरबी में ‘जीम' (ज) का उच्चारण ‘ग' होता है। इसीलिए वहां जमाल अब्दुल नासिर को गमाल अब्दुल नासिर कहते
हैं और अरबी भाषा के एकमात्र नोबेल पुरस्कार विजेता नजीब महफूज को नगीब महफूज कहते
हैं। इस तरह ‘नारंगी’ शब्द का जन्म हुआ होगा।
तीसरा केंद्र
था--- दरबार। वहां भी वही स्थिति थी। अवधी-ब्रज बोलने वाले लोगों को अपनी बात अरबी, फारसी और तुर्की जुबान वालों को समझानी पड़ती थी। इस दौरान भी शब्दों
का आदान-प्रदान होता था। चौथा केंद्र था--- हरम यानी अंत:पुर। यहां स्त्रियां रहती
थीं। वहां बादशाहों की पत्नियां थीं, दासियां
थीं, भारतीय दासियां भी रही होंगी। वे दासियां
अरबी-फारसी नहीं जानती थीं। मगर जब दोनों प्रकार की स्त्रियों में संवाद शुरू हुआ
होगा तो जो भाषा बनी, वह ‘रेख्ता' या ‘रेख्ती' कहलाई। फारसी के पूर्वोल्लिखित शब्द कोश में रेख्ता का एक अर्थ ‘मखलून जुबान' भी दिया हुआ है, जिसका अर्थ है- मिली-जुली भाषा।
कुछ अन्य
शब्दों को लें, जो आम तौर पर ‘उर्दू' के समझे
जाते हैं, जबकि ‘उर्दू’ का अपना कोई शब्द है ही नहीं। हालांकि
भाषा-विज्ञान की किताबों में उन शब्दों के अर्थ मिल जाएंगे, लेकिन कुछ चीजें हैं जो बेहद दिलचस्प हैं। ज्ञातव्य है कि ‘च' ध्वनि की फारसी भाषा में भरमार है। इसलिए ‘च’ ध्वनि वाले अनेकानेक शब्द हमारी भाषा में शामिल हो
गए। जैसे : चचा, बच्चा, जच्चा, चिक, बागीचा, संइकया, खोंचा आदि। हालांकि इन शब्दों के अंत में ‘आ’ की मात्रा नहीं, बल्कि
संस्कृत का विसर्ग है। अन्य शब्दों में ‘नीलाम' पुर्तगाली
शब्द है। ‘कमरा’ इतालवी है। ‘गच’ (पक्का फर्श) तुर्की है। ‘यूसुफ', ‘हारून', ‘मूसा', ‘ईसा' आदि
शब्द ईरानी है। इनका अरबी से कोई लेना-देना नहीं है। ‘गोदाम' शब्द मलेशियाई है। आज लोग इतने सारे शब्दों का प्रयोग रोजमर्रा के
जीवन में कर रहे हैं, लेकिन पता नहीं होता कि वे शब्द मूलत: किस भाषा के
हैं! कुछ भाषाओं के ऐसे शब्द भी हैं, जिनका
इस्तेमाल खूब होता है, लेकिन उनका अनुवाद हिंदी में नहीं कर सकते। जैसे, ‘कुर्सी' और ‘सुराही' अरबी भाषा के शब्द हैं। ‘नजर' भी अरबी
भाषा का शब्द है। ‘नजर' का हिंदी अनुवाद होगा ‘दृष्टि'। मगर ‘नजर' शब्द से जो मुहावरे बने हैं, उनका
क्या होगा? ‘बच्चे को नजर लग गई’ की जगह क्या ‘बच्चे को दृष्टि लग गई’ कहा जा सकता है?
उर्दू के
आलोचक सैय्यद एहतेशाम हुसैन की एक किताब दो शीर्षकों से छपी थी। 1054 में ‘उर्दू साहित्य का
इतिहास' शीर्षक से और बाद में ‘उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक
इतिहास' शीर्षक से। एहतेशाम साहब ने अपनी किताब में लिखा है, "उर्दू भाषा का इतिहास एक प्रकार से भारतवर्ष के एक हजार वर्ष का
इतिहास है।'' यानी जब वह इस किताब को 1964 में
लिख रहे थे, उस समय उर्दू का जन्म हजार वर्ष पहले का मान रहे
थे। आगे उन्होंने लिखा है, "उर्दू न तो विदेशी है न हिंद में पैदा हुई, न दक्षिण भारत में। न वह पंजाब से निकली, न ब्रज भाषा से। वरन दिल्ली के चारों ओर बोली जाने वाली कई बोलियों
में फारसी-अरबी के शब्दों के मिलने और पश्चिमी हिंदी की वह बोली जिसे खड़ी बोली कहा
जाता है, रूप ग्रहण करने से एक नई भाषा का विकास हुआ। आरंभ
में उस पर पंजाबी का प्रभाव अधिक रहा, लेकिन
धीरे-धीरे खड़ी बोली ही उर्दू के रूप में निखरती गई।'' (उर्दू साहित्य का इतिहास)
उन्होंने कुछ और बिंदुओं की तरफ इशारा किया है :-
1. आरंभ में जिन लोगों ने फारसी में भारतवर्ष के इतिहास लिखे या
हिंदुस्तान में सैर करने के लिए आए और अपनी यात्रा का वर्णन लिखा, उन्होंने यहां की भाषाओं को साधारणत: जबाने -हिंद, हिंदी या हिंदुई लिखा है।
2. अमीर खुसरो ने भी, जहां भारत की भाषाओं का वर्णन किया है वहां हिंदी
और हिंदवी के अलावा जबान-ए-देहली लिखा है।
3. हिंदी, हिंदवी और गूजरी शब्दों का प्रयोग किया गया है।
4. 18वीं शताब्दी तक उर्दू शब्द का प्रयोग भाषा के रूप में नहीं मिलता है।
उसकी जगह ‘रेख्ता' या ‘हिंदी' ही कवियों की जुबान थी।
5. मुगलों की उन्नति के समय सेना से संबंधित बाजार होते थे, वहां मिली-जुली बोलियां बोली जाती थीं। उसके लिए कभी-कभी ‘जुबाने-उर्दू' या ‘जुबाने-उर्दू-ए-मुअल्ला' का भी प्रयोग किया जाता था। 19वीं शताब्दी के आरंभ से कुछ पहले उर्दू का शब्द भी
बोला जाने लगा। उसी समय से लेखकों ने इसे हिंदुस्तानी कहना भी आरंभ किया। (वही, पृ. 25)।
अर्थात जब
हिंदी का विकास हो रहा था, उसी समय उर्दू का भी विकास हो रहा था। ‘रेख्ता' का एक मामला यह भी था कि यह संगीत का एक पारिभाषिक शब्द था। इसमें
राग-रागिनियां मिलाई जाती थीं। यह शब्द अधिकतर पद्य के लिए काम में लाया जाता था। गद्य
के लिए हिंदी बोलते और लिखते थे। मतलब कविता को कहते थे ‘रेख्ता' और गद्य को कहते थे हिंदी (उर्दू साहित्य का इतिहास)। अमीर खुसरो ने फारसी में
एक शेर कहा है :
चु मन तूतिए-हिन्दम, अर रास्त पुर्सी
जे मन हिन्दुई पुर्स, नग्ज
गोयम
(मैं हिंदुस्तान की तूती हूँ। अगर तुम वास्तव में मुझसे कुछ पूछना
चाहते हो तो हिंदी में पूछो, जिससे मैं तुमको अनुपम बातें बता सकूँ।)
फिराक
गोरखपुरी ने अपनी किताब ‘उर्दू भाषा और साहित्य' में लिखा है, "उर्दू भाषा दिन-प्रतिदिन सांचे में ढलती जा रही
है। इसी जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर सैकड़ों तरह के खोमचे वाले बैठते थे और सब
अपनी-अपनी बात दिल्ली की उस टकसाली बोली में कहते थे जो चार-पांच सौ बरस पहले बन
चुकी थी और युग तक 80-90 की सीमा तक तैयार हो चुकी थी।'' फिराक
साहब उर्दू को टकसाली बोली कहते हैं। वह न हिंदी कहते और न उर्दू। ‘टकसाल' शब्द का प्रयोग सिक्के ढालने के अर्थ में होता है यानी उर्दू एक ढली
हुई भाषा है। मॉरीशस की ‘क्रियोलि' की तरह!
मिर्जा
गालिब मूलत: शाइर थे और फारसी में शेर और गजल कहते थे। उनकी मातृभाषा फारसी थी।
मिर्जा गालिब दावे के साथ कहते थे कि इस मुल्क में फारसी जानने वाले दो ही लोग हुए
हैं : एक अमीर ख़ुसरो और दूसरा वे ख़ुद। मिर्जा गालिब ने जब देखा कि फारसी समझने वालों
की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है, तब उन्होंने तय किया कि जो ज़बान बोली जा रही है, समझी जा रही है, उस जबान में शाइरी करनी चाहिए। उन्होंने जिस भाषा
में शाइरी की, उसे आज ‘उर्दू' कहा
जाता है। मिर्जा गालिब नहीं जानते थे कि जिस भाषा में वे शाइरी कर रहे हैं, बाद में लोग उस भाषा को उर्दू कहेंगे। मिर्जा गालिब खुद उसे ‘हिंदवी' या ‘देहलवी' कहते थे। अपने खेतों में उन्होंने भाषा के अर्थ में इन्हीं शब्दों का
प्रयोग किया है।
इंशा अल्लाह
खान अपनी भाषा को ‘हिंदी' कह रहे थे, जबकि वे लिख रहे थे अरबी लिपि में। यहां स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ‘उर्दू' फारसी लिपि में नहीं, बल्कि
अरबी लिपि में लिखी जाती है। खुद फारसी की लिपि भी अरबी है। किताबों में जो उर्दू
की लिपि फारसी लिखी हुई है, वह गलत है। मीर अम्मन ‘बागो बहार' में कहते हैं, मैं ऐसी जबान में लिख रहा हूँ जो दिल्ली के
आमो-खास बोलते हैं। (भूमिका)। वे यह नहीं कहते कि मैं उर्दू में लिख रहा हूँ।
शम्सुर्रहमान
फ़ारुक़ी ने अपने उपन्यास ‘कई चांद थे सरे आसमां में' में जगह-जगह लिखा है, यह जुमला हिंदी में बोला गया है। मतलब यह कि ‘उर्दू' शब्द का प्रयोग भाषा के रूप में उस समय नहीं होता था। दिल्ली के
चांदनी चौक के आसपास जो इलाका आबाद हुआ, वहां वह
जबान बोली जाने लगी जो छावनी, दरबार, बाजार
और हरम में बोली जाती थी। उस जबान को कहा गया ‘उर्दू-ए-मुअल्ला।' इसका मतलब यह हुआ कि ऐसी उर्दू जो दिल्ली के किले में बेगमें बोलती
थीं, यानी
उच्चकोटि की उर्दू। कहने का तात्पर्य यह है कि एक हजार वर्ष पहले एक ऐसी भाषा बनी
जो उन्नीसवीं शताब्दी में ‘उर्दू' कहलाई और उस मिली-जुली भाषा को यह नाम अंग्रेजों ने दिया।
वस्तुत: जब
फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई, तब अंग्रेजों ने उस समय
की प्रचलित भाषा को दो हिस्सों में बांट दिया। भाषा का विभाजन लिपि के आधार पर
किया गया। यह भी अंग्रेजों की एक चाल थी। एक भाषा को हिंदी और दूसरी को उर्दू।
यानी नागरी लिपि में लिखी गई भाषा को ‘हिंदी' और ‘अलिफ बे' वाली पद्धति में लिखित भाषा को उर्दू कहना शुरू किया। अंग्रेजों ने
भाषा का जब यह खेल खेला, तब उन्होंने दो कमेटियां भी बनार्इं। दोनों में
सिर्फ एक-एक सदस्य थे। उर्दू कमेटी में सर सैय्यद अहमद खां थे और हिंदी कमेटी में
भारतेंदु हरिश्चंद्र। सर सैय्यद अहमद खां की रिपोर्ट पहले पहुंच गई, जिसे अंग्रेज सरकार ने भारतेंदु जी को भेज दिया और उनसे कहा कि उर्दू
के बारे में तो सर सैय्यद अहमद खां ने यह रिपोर्ट भेजी है, अब आप हिंदी के बारे में अपनी रिपोर्ट भेज दीजिए। अंग्रेजी में लिखी
गई उस रिपोर्ट को जब भारतेंदु जी ने पढ़ा तो बहुत खिन्न हुए। क्योंकि हिंदी के बारे
में सर सैय्यद अहमद खां ने जो टिप्पणी की थी उसमें हिंदी के प्रति अशालीनता थी।
अत: उस पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए भारतेंदु जी ने उर्दू के प्रति अशालीनता
व्यक्त की। इसका नतीजा यह हुआ कि इतिहास के कुछेक विद्वान आज भी भारतेंदु को उर्दू
विरोधी मानते हैं। वे टिप्पणियां इस प्रकार थीं :- सर सैय्यद अहमद खां : ‘उर्दू इज द लैंग्वेज आफ द जेंडरी
एंड हिंदी दैट ऑफ द वल्गर।' भारतेंदु
हरिश्चंद्र : ‘इट
(उर्दू) इज द लैंग्वेज ऑफ डांसिंग गर्ल्स एंड प्रोस्टिच्यूट।' भारतेंदु हरिश्चंद्र का उपर्युक्त कथन हिंदी संबंधी सर सैय्यद अहमद
खां के विचार पर दी गई उनकी प्रतिक्रिया मात्र है। इसे उनका ‘उर्दू-विरोध’ नहीं समझना चाहिए, यद्यपि
उन्होंने ‘उर्दू का
स्यापा’ भी लिखा
था। हम वाकिफ हैं कि उन्होंने स्वयं उर्दू में शाइरी की थी। उनकी गजलों का संग्रह ‘गुलजारे-पुरबहार’ नाम से प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह के तीन संस्करण
उनके जीवनकाल में ही आ गए थे।
वास्तविकता यह
है कि 19वीं सदी तक ‘उर्दू' पूरी
तरह विकसित हो चुकी थी। हिंदी अपने विकास के लिए संघर्षरत थी। इस प्रक्रिया में दोनों
ही भाषाएं वस्तुत: एक दूसरे की सहायता कर रही थीं। क्योंकि यही वह जमाना था जब
उर्दू में उत्तर भारतीय भाषाओं के शब्द सम्मिलित हो रहे थे। हिंदी में रोजमर्रा की
जिंदगी में प्रयुक्त होने वाले अरबी-फ़ारसी के शब्द अपनाए जा रहे थे। भाषाओं के बीच
कोई द्वंद्व नहीं था। द्वंद्व था तो उनके समर्थकों में था। समाज को इस द्वंद्व की
कोई चिंता नहीं थी। समाज न ठेठ हिंदी बोलता है और न ही ठेठ उर्दू। वह मिली-जुली
भाषा बोलता है। इसी को लक्ष्य करके महात्मा गांधी ने ‘हिंदुस्तानी' का सुझाव रखा था, जो
दोनों ओर से अस्वीकृत हो गया। अब इस बिंदु को भी अतीत के तहखाने में डाल देना ही
उचित होगा।
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