प्रविष्टि-3
बौद्ध कला
बौद्ध कला का
संबंध बौद्ध धर्म से है। बौद्ध धर्म के अनुयायी बुद्ध को महान उपदेशक मानते थे।
इसलिए कलाकारों ने बुद्ध की मूर्तियों को लाक्षणिक रूप दिया। उनके जीवन से संबंधित
चार मुख्य घटनाओं जन्म, ज्ञान, उपदेश
और निर्वाण को चार विभिन्न प्रतीकों में दिखाया गया है। उनके जन्म को अधिकतर हाथी
के द्वारा व्यक्त किया गया है। गौतम की माता मायादेवी ने स्वप्न देखा था कि सफेद
हाथी उदर में प्रवेश कर रहा है। अशोक स्तंभ के शिखरों पर सिंह को स्थान दिया गया
है, जो गौतम के शाक्य सिंह होने का प्रतीक है। भरहुत
और बोधगया के अलावा सांची में जन्म को प्रतिबिंबित करने के लिए कमलासन पर बैठी
देवी और दो तरफ दो हाथियों की उपस्थिति एक नए लाक्षणिक अंदाज में है। इसे
गजलक्ष्मी कहा गया है। इस पर हिंदू पौराणिकता का असर है। दक्षिण भारत की अमरावती
कला में भी हाथियों का प्रयोग है। बोधगया में बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति का प्रदर्शन
पीपल के वृक्ष के संकेत से है। पीपल वृक्ष के नीचे ही गौतम ने मार पर विजय और
संबोधि प्राप्त की थी। शुंग कालीन कला में सर्वत्र ही यह लक्षण प्रदर्शित है।
भारहुत, बोधगया, सांची
और अमरावती की वेदिकाओं पर पीपल वृक्ष का प्रतीक बड़े सुंदर ढंग से आया है। संसार
के पशु-पक्षी, मनुष्य और देवतागण उस वृक्ष की पूजा करते दिखाए गए
हैं। उपदेश या धर्म चक्र प्रवर्तन की घटना सारनाथ से संबंधित है। इसी स्थान पर
बुद्ध ने सर्वप्रथम धार्मिक उपदेश दिया था। इसका प्रतीक चक्र माना जाता है। बौद्ध
कला पहले हीनयान के बौद्धिक आश्रय में शुरू हुई थी। पर हर शाखा में धर्मचक्र को
सबसे ऊंचा स्थान मिला।
अशोक ने
सारनाथ में जो स्तम्भ बनवाया, उस पर
चार सिंहों की पीठ पर एक चक्र की आकृति है। इसका आशय यही है कि धर्म शक्ति से परे
है। चार सिंह का आशय है, चारों दिशाओं में धर्म का प्रचार हो चुका है। सिंह
शक्ति और चक्र धर्म प्रवर्तन का लक्षण माना गया है। चौथा प्रतीक स्तूप है, इससे बुद्ध के निर्वाण का बोध
होता है। हीनयान के कलाकेंद्रों में इसे प्रमुख स्थान मिला है। शुंगकालीन स्थापत्य
में स्तूप को आदर की दृष्टि से देखा गया। सारे भारत की वेष्टनियों और सांची के
तोरण पर स्तूप का प्रतीक है।
बाद में जब
बुद्ध और बोधिसत्व की पूजा आरंभ हुई, तब कला में लक्षण की
जगह बुद्ध तथा बोधिसत्व की मूर्तियां बनने लगीं। बुद्ध को योगी और भिक्षु के रूप
में दिखाया जाने लगा। शुंग युग की कला में बुद्ध के विभिन्न प्रतीक प्रधान स्थान
प्राप्त कर चुके थे। भरहुत, बोधगया तथा सांची की कला लाक्षणिक थी। कनिष्क के
काल में गांधार में मूर्ति बनने लगी। कुमार स्वामी के अनुसार गांधार और मथुरा के
कला केंद्रों में बुद्ध प्रतिमा का निर्माण स्वतंत्र रूप से हुआ। दोनों शैलियों
में से किसी पर एक दूसरे का प्रभाव नहीं दिखता। भगवान बुद्ध की मूर्तियां ध्यान
तथा बुद्धत्व प्राप्ति की दशा में दिखलाई गई है। सारनाथ में बुद्ध ने धर्म चक्र
प्रवर्तन किया था, इसलिए
भगवान द्वारा पांच साधुओं को अंतिम ज्ञान (दीक्षा) देते हुए दिखाया गया। इसी
प्रकार स्तूप से परिनिर्वाण का बोध न कराकर स्वयं बुद्ध की मूर्ति लेटी हुई अवस्था
में तैयार की गई। बुद्ध मूर्तियां संन्यासियों की पोशाक (चीवर) में बनने लगीं।
बुद्ध मूर्तियों ने लाक्षणिक कला का स्थान ले लिया। चैत्य गुफाओं में स्तूप के
सामने मूर्तियां जोड़ दी गर्इं। इसके कारण प्रतीक गौण हो गए। बुद्ध की मूर्तियां
बैठी (आसन में), खड़ी
(स्थानक) और लेटी (शयन) दशा में दिखाई पड़ती हैं। इन मूर्तियों में हाथों की
अलग-अलग मुद्राएं (ध्यान, भूमिस्पर्श, धर्म चक्र प्रवर्तन, अभय, वरद और व्याख्यान) स्पष्ट रूप से दिखाई गई हैं।
गांधार, सारनाथ
के कला केंद्र तथा मथुरा इसी तरह की मूर्तियों के लिए जाने जाते हैं। गांधार में
महापुरुष के लक्षणों (जलांगुली, उर्णा, लंबे कान आदि) को दिखाया गया है। मथुरा में
विशालकाय स्थूल भावना के साथ बुद्ध मूर्ति बनाई गई। सारनाथ में ध्यान में लीन, गंभीर भावना और मननशील एवं दार्शनिक विचार युक्त
मूर्तियां तैयार हुर्इं। सारनाथ की धर्मचक्र प्रवर्तन वाली बुद्ध मूर्ति इतनी
लोकप्रिय हुई कि गुप्त युग के बाद मगध तथा बंगाल में उसी का अनुकरण होता रहा। इस
तरह महायान मत के कारण शुंग युग की लाक्षणिक पद्धति की जगह बौद्ध मूर्तियां कला
में प्रतिष्ठित हो गईं। कुषाण युग तक यह सिलसिला चलता रहा।
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