प्रविष्टि-2
लोकमानस
लोक बहुवाची
है। आरंभ में ब्राह्मण के आधार पर भूलोक (इहलोक, मर्त्यलोक) द्युलोक (स्वर्गलोक, परलोक)
एवं पाताल-लोक (नाग-लोक) जैसे तीन स्थूल विभाजन किए गए। कालांतर में इहलोक और
परलोक जैसे दो लोक की विद्यमानता ही स्वीकार्य हुई और देशकाल एवं परिस्थिति के
अनुसार विभिन्न मानव-समुदायों को लोक की संज्ञा मिली। आचार्य अभिनव गुप्त ने
स्पष्ट रूप से लोक को जनपदीयता के परिप्रेक्ष्य में देखा-- लोको नाम जनपदवासी जन:। इन
जनपदीयताओं के निर्धारण में भूगोल, प्रकृति, स्मृति, धर्म, परिवेश, व्यवसाय, सभ्यता जैसे बहुत से कारकों की भूमिका थी, जिनके योग से कर्मरत मनुष्य की
सामूहिक चेतना का उदय हुआ। इस चेतना में जीवन का संघर्ष और सौंदर्य झलक मानता है, किंतु तथाकथित शिष्ट और सभ्य समाज ने लोक को ‘फोक’ के आलोक में जिस संकीर्ण एवं गिरी हुई दृष्टि से
देखा, उससे उजागर होने के बजाय लोक ज्यादातर मटियामेट ही
हुआ। शायद ऐसी ही तंग नजर के मद्देनजर नामवर सिंह की दृष्टि अंधलोकवाद पर गई। उन्होंने
लोकमानस के जीवंत तत्वों की भरपूर पैरवी की। उनसे
पहले आचार्य रामचंद्र शुकल इसकी पक्की नींव रख चुके थे। लोकमानस की निर्मिति में
लोक के अपने उपादानों की ही अहमियत कारगर होती है, चाहे ये
उपादान कितने ही आड़े-तिरछे, ऊबड़-खाबड़, सीधे-सादे
और कभी कुछ के कुछ ही क्यों न हो। देखा जा सकता है, उपलब्ध उपादानों से सौंदर्योत्पादन का यह नमूना
कितना नायाब है- ‘गोरी तोर जुड़वा जइसे लठिया कै हुरवा’। कहां नायिका के सिर प्रलंब केशों का जूड़ा और कहां लाठी का (सबसे मोटा
सिरा) हूरा! लेकिन इस अटपटेपन की आप खिल्ली नहीं उड़ा सकते, क्योंकि गांवों में घर-घर लाठी है। लठिबलों का सौंदर्यबोध ऐसा भी हो
सकता है। दूसरी ओर, लोकमानस अपने बेजोड़ प्रतिमान गढ़ता रहता है। आखिर, अंडे को सफेद आलू, कटहल, को
वनस्पति बकरा या मछली को जलतरोई उच्चारने के पीछे किसी न किसी तरह का हास्य-व्यंग्य
तो होगा ही। कबीर जैसे कवि के जीवनानुभव उत्पादक श्रेणियों से जुड़े बुनकर, लोहार, तेली सरीखे वर्गों से संभूत हैं, चाहे वे धार्मिक हों, आध्यात्मिक
या सामाजिक। ‘काची सरसो
पेरि के खरी (खली) भई, नहिं तेल’ या ‘मुई खाल की सांस सो सार भसम ह्वै जाय’ जैसे कथन ऐसे ही लोकमानस की उपज हैं।
कृषि और
पशुपालन की सभ्यता से जुड़े, वनोपज
से जुड़े, समुद्री, पर्वतीय
या मरूस्थलीय जीवन से जुड़े लोक के उपादान और अनुभव लोक परिवेश की सोच और
अभिव्यक्ति को उन आलंबनों के साथ व्यंजित करते हैं। संस्कृत की लोकधर्मी कविता में
ग्राम्यजीवन के दुख-दारिद्रय, सौंदर्य एवं स्वाभिमान, घृणा और प्रेम, राजन्य का तिरस्कार आदि जिस मार्मिक चेतना के साथ
उपस्थित हैं, उनमें
लोकजीवन के विलक्षण चित्र हैं। महिषशतकम् के कवि वांछानाथ राजसभा को ठुकराकर
रजवाड़ों के प्रति जैसी अवज्ञा और अपनी खेती में जुते भैंसे के प्रति जैसे ममतालु
हैं, वह दुर्लभ है। यहां तक कि वे धन के घमंड में चूर
राजदुलारों का मुंह देखने की अपेक्षा अपने भैंसे के स्थूल अण्डकोश देखना श्रेयस्कर
मानते हैं- तेषां वक्त्रविलोकनात् तव वरं स्थूलाण्डकोशेक्षणम्/येन श्रीमहिषेन्द्र
लभ्यत इह प्रायेण मिष्टाशनम्। उदरपूर्ति के लिए कठोर श्रम और सिर ऊंचा करके
स्वाभिमान के साथ जीना लोकमानस की अन्यतम विशेषता है। बेढब जीवन के अटपटेपन से
नाभिनालबद्ध लोकमानस की सहमति या असहमति में, अभिव्यक्ति
या गोपन में, सत्कार या तिरस्कार में प्रदत्त, आयत्त और तत्काल उठ खड़ी परिस्थितियों की भूमिका ही नियामक होती है।
इसीलिए लोक के नियम जितने लचीले होते हैं, उतने ही बाध्यकारी भी। जीवन को बचाने और उसे सुंदर
बनाने के प्रयत्न में जीवन को खतरों और विरूपताओं की सीमा तक खींच ले जाना भी
लोकमानस का एक अनिवार्य तत्व है।
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